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विनयसमाधि
श्राचारों को न पाले । इनमें से अंतिम चौथा पद महत्वका है और उसे लक्ष्य रखना चाहिये । तत्संबंधी श्लोक इस प्रकार है:
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[५] जो साधु, दमितेन्द्रिय होकर आचार से श्रात्मसमाधि का अनुभव करता है, जिनेश्वर भगवान के वचनों में तल्लीन होकर वादविवादोंसे विरक्त होता है और संपूर्ण ज्ञायक भावको प्राप्त होता है, वह आत्ममुक्ति के निकट पहुंच जाता है
[६] वह साधु चार प्रकार की आत्मसमाधि की आराधना कर विशुद्ध बन जाता है तथा चित्त की सुसमाधि को साधकर में परम हितकारी तथा एकांत सुखकारी अपने कल्याणस्थान (मोक्ष) को भी स्वयमेव प्राप्त करलेता है ।
[७] इससे वह जन्म-मरण के चक्र से तथा सांसारिक बंधनोंसे सर्वथा मुक्त होकर शाश्वत ( अविनाशी ) सिद्ध पदवी को प्राप्त होता है अथवा यदि थोडे कर्म बाकी बच गये हों तो महान ऋद्धिशाली उत्तम कोटि का देव होता है
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टिप्पणी- जिस तपमें भौतिक वासना की गंध नहीं, जिस तपमें कीर्ति अथवा प्रशंसा की इच्छा नहीं, मात्र कर्ममल से रहित होने की ही भावना है वही तप आदर्श है और जिस आचारमें आत्मदमन, मौन तथा समाधिका समावेश है वही सच्चा तप है । जिस विनयमें नम्रता, सरलता, एवं सेवाभाव है वही सच्ची विनय है और जिस ज्ञानसे एकाग्रता तथा समभाव की वृद्धि होती है वहीं सच्चा ज्ञान है ।
ऐसा मैं कहता हूं:
इस प्रकार 'विनयसमाधि' नामक नौवां अध्ययन समाप्त हुआ ।