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दशवकालिक सूत्र
57 "वायु, वृष्टि, ठंड या गर्म हवा, उपदव की शांति, सुकाल,
त्या देवी उपसर्ग की शांति इत्यादि बातें कब होंगी अथवा ऐसी हो या ऐसी न हों" इत्यादि प्रचारकी संयम धर्मको दूपित करनेवाली भविष्यवाणी मिचु न कहे और न इस तरह का कोई प्राचाए ही रे।
टिप्पणी-ऐसा करने दूसरे लोगों को दुःख होने की संभावना है। उत्त दुःखका निमित्त होना साधुके लिये योग्य नहीं है। १२] उसी प्रकार वादल, प्रकाश, या राजा जैसे मानव को यह
देव है' मेसा न कहे; किन्तु मेवको देखकर साधु, अदि भावश्यकता हो तो "यह मेघ बहता प्राता है, ऊंचा घिरता श्राता है, पानी से भरा है, अथवा यह वरस रहा है" इत्यादि प्रकारके भपित वाक्य ही कहे।
टिप्पणी-उन समय में वादत, आकाश या आशएवर्गको सामान्य जनता 'देव' मानती थी और उनमें कोई विशिष्ट अनुतता भरी दुई मानतो थी। इस प्रकारको मुकी अद्भुतता नानने से इं बहनों एवं अमानव आदि दोषोंकी वृद्धि होना स्वाभाविक है इस लिये जैन 'शासन के महापुरसाने व्यक्तिपूजा एवं वस्तुपूजा का विरोध कर केवल गुणपूजाफ. ही नहत्त्व बताया है। [१३] अनिवार्य आवश्यकता होने पर प्रकाशको अंतरिक्ष अथवा गुखों
(एक प्रकार के देवों) के श्रानेजानेका गुप्त भार्ग कहे अथवा किसी ऋद्धिनान या बुद्धिमान मनुष्यको देखकर वह ऋद्धिशाली या बुद्धिमान मनुष्य है क्त इतना ही कहे।
टिप्पणी-किलोकी मूंकी प्रशंसा किंवा मूग अद्भुतता वा न ले। १२४] और साधु क्रोध, लोभ, भय या हात्य के वशीभूत होकर
पापकारी, निश्चयकाली, दूसरों को दुःखानेदाला वाक्य हंसी या मजाकमें भी किसी से न कहे।