________________
सुवाक्यशुद्धि
[२] इस प्रकार मुनि वाक्यशुद्धि और वाक्य की सुन्दरता को सम
मकर सदैव दूपित वाणीसे दूर रहे। इस कथनका जो कोई साधु विवेकपूर्वक चिन्तन करके परिमित एवं अदूपित वाक्य बोलता है वही साधु सत्पुरुपोंमें श्रादरणीय होता है।
टिप्पणी-मैं जो कुछ बोल रहा हूं उसका क्या परिणाम आयगा, इस पर खूब विचार कर लेनेके बाद ही जो कोई बोलता है उसकी वाणी में स्वच्छता एवं सफलता दोनों रहती हैं। [२६] भापा के गुणदोपों को भली प्रकार जानकर, विचार (मनन)
करके उसमें से बुरी भापाको सदैव के लिये त्याग करनेवाला पक्राय जीवोंका यथार्थ संयम पालन करनेवाला, साधुत्व पालन में सदैव तत्पर, ज्ञानी साधक परहितकारी एवं मधुर भापा ही
वोले। [१७] और इस प्रकार दूपित एवं श्रदूषित वाक्य की कसौटी करके
बोलनेवाला, समस्त इंद्रियोंको अपने वशमें रखनेवाला, समाधिवंत, क्रोध, मान, माया और लोभसे रहित अनासक्त भिक्षु अपने संयम द्वारा नवीन कर्मीको श्राते हुए रोकता है और पूर्वसंचित पाप कर्म रूपीमलको भी दूर करता है और अपने शुद्ध आचरण द्वारा दोनों लोकों को सिद्ध करता है।
टिप्पणी-इस लोक में अपने सुन्दर संयमसे सत्पुरुषोंमें मान्य बनता है और अपने आदर्श त्याग तपश्चर्या के प्रभावसे परलोकमें उत्तम देवयोनि अथवा सिद्ध गतिको प्राप्त होता है।
आवश्यकता के विना न बोलना, बोलना ही पडे तो विचारपूर्वक बोलना, असत्य न बोलना, सत्य ही बोलना, किन्तु वह सत्य दूसरे को दुःखप्रद एवं कर्णक्ट न हों, सुननेवाले को उस समय अथवा बादमें पीडा न हो ऐसा विवेकपूर्ण वचन ही बोलना चाहिये।