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षड् जीवनिका
(समस्त विश्व के छ प्रकार के जीवों का वर्णन)
गद्य विभाग भोग की वासनामें से तीव्रता मिटकर उस तरफ की इच्छा के वेगके मंद पडजाने का नाम ही वैराग्य हैं।
वह वैराग्य दो प्रकार से पैदा होता है; (१) विलास के अतिरेक से प्राप्त हुए मानसिक एवं कायिक संकट से, और (२) उसमें (पदार्थ में अभीप्सित) इष्ट तृप्ति के अभाव का अनुभव । इन कारणों में से वह या तो स्वयं जागृत होजाता है और कभी २ उसकी जागृति में किसी प्रबल निमित्त की प्रेरणा भी मिल जाती है।
यह वैराग्यभावना विवेकबुद्धि को जागृत करती है और तब से वह साधक चलने में, उठने में, बोलने में, वैठने में, आदि छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी क्रिया में उसकी उत्पत्ति, हेतु और उसके परिणाम का गहरा चिंतन करनेका अभ्यास करने लगता है।
इस स्थिति में वह अपनी आवश्यकताओं को घटाता जाता है और आवश्यकताओं के घटने से उतका पाप भी घटने लगता है। इसी को शनपूर्वक संयम कहते हैं।