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रतिवाक्य चूलिका
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[१४] गृहस्थों के कामभोग निकृष्ट ( अत्यन्त निशकोटिके) हैं । [१२] और हे आत्मन् ! संसार के याचन्मात्र प्राणि पुण्य एवं पाप से घिरे हुए हैं ।
[१६] और यह जीवन देखो, कितना क्षणभंगुर है ! दर्भकी नौक पर स्थित श्रोस के जलबिंदु के समान यह जीवन प्रति चंचल एवं क्षणिक है ।
टिप्पणी-ऐसे विनश्वर जीवन के लिये अविनश्वर धर्म को क्यों छोट देना चाहिये ।
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[१७] अरे रे ! सचमुच ही मैंने पूर्वकालमें बहुत पाप किया होगा ! टिप्पणी-यदि पापका उदय न होता तो संयम जैसी पवित्र वस्तु से मुझे विरक्ति क्यों होती ? पापकर्म ही उस शुभवस्तु का संयोग नहीं रहने देते । [१८] और गृहस्थ होकर तो मैं और भी दुश्चारित्र्यजन्य पापकर्मों से
घिर जाऊंगा, फिर उनसे मुक्ति कभी मिलेगी ही नहीं । इन दुःसह्य पूर्वकर्मों को समभाव से सहलेने और तपश्चर्या द्वारा ही खपाया जा सकता है ( और यह मौका मुझे संयमी अवस्थामें ही प्राप्य है, अन्यत्र नहीं )
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टिप्पणी - इनं १८ उपदेशों पर पुनः २ विचार और गहरा मनन करने से संयम से विरक्त मन पुनः संयम की तरफ आकृष्ट होगा और वह उसमें स्थिर हो जायगा ।
अब श्लोक कहते हैं
[1] जब कोई श्रनार्य पुरुष केवल भोग की इच्छा से अपने चिर संचित चारित्र धर्म को छोड़ देता है तब वह भोगासक्त अज्ञानी अपने भविष्य का जरा भी विचार नहीं करता ।
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