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दशवैकारिक सूत्र
' टिप्पणी- जब कोई भी साधारण अथवा बुद्धिमान साधक कोई अयोग्य
"कां कर बैठता है तब वह इतने अधिक आवेशमें होता है कि उस समय
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उसे यह नहीं दीखता कि इस कुकर्मका कैसा भयंकर परिणाम होगा |
'[३] परन्तु जब वह त्यागाश्रम छोडकर ! गृहस्थाश्रम में पीछे लौटे. आता धर्म से भ्रष्ट होकर, स्वर्ग देवेन्द्र की तरह पश्चात्ताप
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है 'तब वह त्याग एवं गृहस्थ दोनों से च्युत पृथ्वी पर पडे हुए करता है ।
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टिप्पणी- देवेन्द्रकी उपमा इसलिये दी है कि कहां' वे स्वर्गीय सुख और कहाँ मर्त्यलोक के दुःख ! इसी तरह कहां वह संयमी जीवन का लोकोत्तर आनंद और कहां पतित जीवन के कष्ट ! संयमभ्रष्ट पुरुष की लोकमें भी निंदा होती हैं और उसके हृदयमें भी इसका दुःख हुआ करता है ।
: [ ३ ] प्रथम ( संयमी अवस्थामें ) तो वह विश्ववंदनीय होता है और भ्रष्ट होने के बाद श्रवंद्य ( तिरस्कार के योग्य ) हो जाता है तब वह अपनेमनमें स्वर्ग से पतित अप्सरा की तरह खूब ही पाता है ।
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[४] पहिले तो वह महापुरुषों द्वारा भी पूज्य था और जब वही बाद में पूज्य हो जाता है तब राज्य से पदभ्रष्ट- राजा की
' तरह खूब ही पश्चात्ताप करता. है ।
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[५] पहिले वह सबका मान्य होता है किन्तु भ्रष्ट होनेके बाद वह श्रमान्य होजाता है तब अनिच्छापूर्वक निर्धनकृषक बने हुए
धनिक सेठ की तरह वह खूब ही पश्चात्ताप करता है 1
टिप्पणी- पतित होकर नीच कुल में गये हुए अथवा धनहीन होकर नीच अवस्था को प्राप्त धनिक सेठ जिसतरह अपनी पूर्ववर्ती उच्चदशाको याद कर १२. के दुःखों होता है उसे तरह मुनिवेश छोड कर गृहस्थजीवन में गया हुआ साधक पश्चात्ताप करता है
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