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रेतिवाक्म चूलिका
[६] भोगकी लालचसै त्यागाश्रमको छोडकर गृहस्थाश्रममै गया हुआ साधक यौवन व्यतीत कर जब जराग्रस्त होता है तब लोह के
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कांटे में लगे मांसको खाने की लालचमें तरह अत्यंत कष्टको प्राप्त होता है ।
फँसी हुई मछली की
[७] और जब वह चारोंतरफसे पीडाकारी
कौटुंबिक चिन्ताओं से
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घिरता है - पीडित होता है तब वह बन्धनोंमें फँसे हुए हाथी की तरह दुःखी होता है ।
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.. [-] और त्यागाश्रमको छोडकर गृहस्थाश्रममें गया हुआ मुनि जब स्त्री, पुत्र, तथा कच्चे बच्चों के परिवार से घिरकर मोह परंपरामें फँस जाता है तब वह दलदल में फँसे हुए हाथी की तरह 'न नीरम् नो 'तीरम' न पानी और न . किनारा इन दोनों के वीचकी स्थितिमें पढा हुआ खेद किया करता है ।
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टिप्पणी- स्त्री, पुत्रादि परिवारमें से निवृत्त होकर शांति प्राप्त करने की उसे जरा सी भी फुरसद नहीं मिलती तब उस जालमें से छुटने के लिये व्यर्थ ही इधर उधर हाथपेर फेंका करता है किंतु बंधन इतने बूत होते हैं कि इब्छा करनेपर भी वह उनसे छुट नहीं सकता और इस
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गाढ एवं मज
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कारण वह और भी दुगुना दुःखी होता है ।
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[4+१०] ( फिर इस स्थितिमें जब वह विचार करने बैठता है तब
उसे सद्विचार सूमते हैं. और बढाही
पश्चात्ताप होता है-कि
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हा ! मैंने यह बहुत ही बुरा किया) यदि मैं जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित विशुद्ध साधुतापूर्ण त्यागमार्ग पर आनंद पूर्वक रहा होता तो आज अपने अपूर्व श्रात्मतेज एवं अपूर्व ज्ञान का धारक होकर समस्त साधुगस का स्वामी बन जाता । इन महर्षियों के त्यागमार्ग में अनुरक्त त्यागी पुरुषों का देवलोक के समान सुखद त्यागं कहां और त्यागमार्ग से भ्रष्ट
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