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श्राचारप्रणिधि
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[३] उन जीवों के प्रति सदैव अहिंसक वृत्तिसे रहना चाहिये । जो कोइ मन, वचन र कायसे श्रहिंसक रहता है वही साधक आदर्श संयमी है ।
टिप्पणी-ज्यों २ इच्छाएं और आवश्यकताएं घटती जाती हैं त्यो २ हिंसा भी घटती जाती है और ज्यों २ हिंसा घटती है त्यों २ अनुकंपा (दया) भाव बढता जाता है। इसलिये सच्चा संयमी ही सच्चा अहिंसक कहलाने का दावा कर सकता है । जो अहिंसक है वह न्यूनाधिक रूपमें हिंसक होगा ही, फिर चाहे उसकी हिंसा स्थूल जीवोंकी हो या सूक्ष्म जीवों की प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, वह स्वयं करता हो अथवा दूसरों के द्वारा कराता हो, कुछ. न कुछ भाग इसका उसमें है अवश्य ।
[४] ( जैन साधु प्रत्येक जीवकी श्रहिंसाका पालन किस तरह करे उसका वर्णन करते हैं) समाधिवंत संयमी पृथ्वी, भींत ( दीवाल ), सचित्तशिला या मिट्टी के ढेले को स्वयं न तोडे " और न खोदे ही, दूसरों द्वारा तुडवाचे नहीं और न खुदवाने ही, और यदि कोई व्यक्ति उनको तोड या खोद रहा हो तो. उसकी अनुमोदना भी न करे । इस प्रकार तीन करणों (कृत, कारित, अनुमोदन) से तथा मन, वचन और काय इन तीन योगोंसे संयमी हिंसा न करे ।
[२] और सजीव पृथ्वीपर या सजीव धूलसे सने हुए श्रासनपर न बैठे किन्तु बैठनेको यदि आवश्यकता ही हो तो मालिक की श्राज्ञा प्राप्त कर उसका संमार्जन ( झाड पोंछ ) कर बादमें उसपर बैठे 1
टिप्पणी - संमार्जन करने की झड जाय और उससे सूक्ष्म जीवों की साधु रजोहरण नामक उपकरण (संयमका
आवश्यकता
इसलिये है कि सजीव धूल
क्रिया के लिये जैन -
रक्षा हो। इस साधन ) सदैव अपने पास रखते हैं ।