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दशवकालिक सूत्र
दृष्टि न डालकर त्यागकी तंग एवं गहरी गलीमें होकर जाना पडता है।
इन सब कष्टोंको उत्साह एवं नेहपूर्ण हृदय से सहनकर उमंग सहित जो ध्येयमार्ग में बढता जाता है वही उग्र साधक सद्गुणोंके संग्रह को सुरक्षित रख सकता है, पचा सकता है और उसके सारका रसास्वाद कर सकता है ऐसे सदाचारी साधुको कहां २ और किस तरह जागृत रहना होता है उसका मानसिक, कायिक तथा वाचिक संयम के तीनों अंगों की भिन्न २ दृष्टिविन्दुओं से की हुई विचार परंपरा इस अध्ययनमें वर्णित है जो साधक जीवन के लिये अमृत के समान प्राणदायी है।
गुरुदेव बोले[२] सदाचार के भंडार स्वरूप साधुत्वको प्राप्त कर भिक्षुको क्या
करना चाहिये वह मैं तुमको कहता हूं। हे भिक्षुओ! तुम
उसे ध्यानपूर्वक सुनो। [२] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, हरियाली घास, सामान्य वनस्पति,
वृत, वीज तथा चलने फिरनेवाले जो इतर प्राणी हैं वे सब जीव हैं ऐसा महर्पि (सर्वज्ञ प्रभु) ने कहा है।
टिप्पणी-इस विश्व में बहुत से जीवजन्तु इतने सूक्ष्म होते हैं जो आंखसे दिखाई नहीं देते, फिरभी उनकी वृद्धि, हानि, भावना, इत्यादि के द्वारा यह जाना जा सकता है कि वे जीव हैं। आधुनिक वैशानिक अन्वेषणों द्वारा यह बात भलीभांति सिद्ध कर दिखाई गई है कि वृक्ष भी हमारी तरह से सुख, दुःख, शोक, प्रेम इत्यादि वातोंका अनुभव करते हैं। यावन्मात्र जीव भले ही वे छोटे हों या बडे, जीवित रहना चाहते है, और सभी सुख चाहते हैं, दुःखसे डरते हैं। इसलिये प्रत्येक सुखैपी मनुष्यका यह कर्तव्य है कि वह दूसरे जीवोंकी रक्षा करे और अपना आचरण इस तरह का रखना 'जिससे दूसरोंको सुख पहुंचे।