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संस्कृत अवचूरि तथा उनके शिष्य ज्ञानसम्राट की वालावबोध गुजराती टीका हैं । इनके सिवाय संवत १६४३ में खडतरगच्छीय जिनराजसूरि. के प्रशिष्य राजहंस महोपाध्यायने भी गुजराती भाषामें एक टीका बनाई थी।
ईस्वी सन् १८९२ में डाक्टर अनस्ट ल्युमन (Dr. Ernest Leuman ) ने सबसे पहिले अपनी Journal of the German Oriental Society द्वारा इस ग्रंथकी एक आवृत्ति प्रकाशित की थी। इस के प्रकाशन के पहिले सभी प्रतियां केवल हस्तलिखित थी। किन्तु छापखाने के प्रचार के साथ २ अनेक आवृत्तियो भारतवर्ष में भी प्रकाशित होती रही हैं। उनमें विशेष उल्लेख्य संवत १९५७ में प्रकाशित राय धनपति सिंह बहादुर की पंचांगी आवृत्ति है । इस पुस्तकमें सबसे पहिले मूल गाथा, उसके नीचे श्री हरिभद्रसूरीको वृहत्ति , उसके नीचे नियुक्ति, और बादमें क्रमश: गुजराती अनुवाद, अवचूरि और दीपिका दिये गये है।
इसके बाद डॉक्टर जीवराज घेलामाईने भी इस ग्रन्थको ३-४ आवृत्तियां प्रकाशित कराई थी। सन १९३२ में डॉक्टर शूनिंगने अहमदावाद की आनंदजी कल्यागजी की पेनने की मांग पर जर्मनी में एक आवृत्त प्रकाशित की थी। इसी असे में प्रोफेसर अभ्यंकर ने जैन साहित्य के अभ्यासी कालेज के विद्यार्थियों के लिये श्री भद्रबाहु नियुक्ति सहित अंग्रेजी अनुवाद के साथ दशकालिक प्रकाशित किया । कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि यह पुस्तक टिप्पणियों तथा नोटों से अलंकृत बहुत ही आकर्षक आकार में प्रकाशित हुई है।