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बिंदु । मनुष्य जबतक साधकदशामें रहता है तबतक. उसके द्वारा स्खलन, दोष और पतन हो जाना सहज संभाव्य है इसी कारण ऐसे साधकों के संयमीजीवनकी रक्षा के लिये धर्मधुरंधरोंने प्रसंगों का सूक्ष्म अनुवीक्षण करके उनके अनुकूल विधेय (कर्तव्य) एवं निषेधात्मक नियमोपनियमों की रचना की है किन्तु उनमें मी भिन्न २ दृष्टिविन्दु समाये हुए हैं ।
ऐसे ही नियम वेदधर्म, बौद्धधर्म, तथा इतर धर्मों में भी पाये जाते हैं और साधकदशामें इनकी आवश्यकता भी है इस बात को समी विद्वान नि:संशय स्वीकार करेंगे ही।
अब यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि नियम तो निश्चयात्मक ही होते हैं और होने, भी चाहिये; उनमें अनेकांतता अथवा भिन्न भिन्न दृष्टिबिन्दुओं की क्या जरूरत है ?
इस प्रश्नका उत्तर यही है कि जन्म २ जो २ नियम बनाये गये हैं तब २ उन धर्मसंस्थापकों ने तत्कालीन संघदशा तथा साधकों की परिस्थितियों के बलाबल का विचार । करके ही उन नियमोपनियमों की सृष्टि की थी । यद्यपि साधक का ध्येय तो केवल आत्मविकास साधना ही है परन्तु उस विकास को साधने के लिये ऐसे नियमोपनियमों की मी पूर्ण आवश्यकता तो है ही।
उत्सर्ग अथवा अपवाद उनमें से जो नियम विकास. के बिलकुल समीप के हैं उन में तो किसी प्रकार का अपवाद हो ही नहीं सकता अर्थात्