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यद्यपि इत से मैं यह नहीं मानता कि ऐसा करने से . जिज्ञातु वर्ग की इच्छा को संपूर्णतः सन्तुष्ट किया जा सकेग, परंतु ऐसा तो मैं अवश्य जानता हूं कि उनकी विचारणा में संपादकीय टिप्पणियां थोड़ी बहुत उपयोगी अवश्य होगी और : इनसे कम से कम ग्रन्थकार के रहस्य को समझने में समझफेर के निये कोई स्थान न रहेगा। इस उपयोगिता को उत्तराभ्ययन के वाचकों द्वारा जानकर ही मैंने इस पुस्तक में भी उचित प्रसंगो में प्रसंगोचित छोटी बडी टिप्पणियां दी हैं।
संपादकीय टिप्पणियां मूल गाथा के अर्थ से जुदे 'टाइप में दी गई हैं । इन टिप्पणियों से कोई यह न समझे कि मूल ग्रंथ में अनुवादक की दृष्टिमें इतनी कमी रह गई है अथवा इतना लिखना और भी आवश्यक था; किन्तु वाचक यही समझे कि अनुवादक अपना मात्र अभिप्राय दे रहा है जिससे वाचक को समझने और अपना मत बांधने में यत्किचित मदद मिल सके।
दशवैकालिक सूत्र के वाचकों को इतना निर्देश करने के बाद, अब मैं उसको उन खास आवश्यक ज्ञातव्य वातों की तरफ प्रेरणा करना चाहता हूं जिनको इस पुस्तक को पढ़नेके पहिले पूर्णतः जान लेना परम आवश्यक है । इन बातों को जान लेने से इस ग्रंथ के रहस्य को समझने में बड़ा सुभीता होगा ।
(१) जैनदर्शन की अनेकांतता जैनदर्शन अनेकांतदर्शन है इसलिये उसमें आये हुए सूत्र बहुधा सापेक्ष (अपेक्षायुक्त) होते हैं । अपेक्षा अर्थात् दृष्टि
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