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होती। ऐसा समझ कर ही जहां-तहां आवश्यक टिप्पनियां वढा दी गई हैं।
यद्यपि कुछ विद्वान मात्र भापादृष्टि से ही मूल के अनुवाद को अपना कार्यक्षेत्र मानते हैं अर्थात् शब्द के .बदले शब्द रखा देना ही उनका उद्देश्य रहता है किन्तु हमारी रायमें तो ग्रंथकर्ता का मूल आशय अथवा जिस दृष्टिसे वह कथन किया गया है इस प्रकार की तुलनात्मक विवक्षा का पत्ता जबतक वाचक को पूर्ण स्पष्टता के साथ न हो जाय तबतक अनुवादकर्म अपूर्ण ही समझना चाहिये, इतना ही नहीं, ऐसा अनुवाद अपने उद्देश्य की पूर्ति भी नहीं कर सकता। अनुवादक को चाहिये कि वह शब्दों का ध्यान रखते हुए ग्रंथकार के असली रहस्यों को भी सरल से सरल भाषा में प्रगट करे जिससे प्रत्येक वाचक ग्रंथकार के हृदय को जान सके ।
किसी भी भाषा के गद्यानुवाद की अपेक्षाः पद्यानुवाद में उक्त वस्तु की तरफ विशेष ध्यान रखना पड़ता है । यद्यपि समर्थ ज्ञानी पुरुषों के कथन में उस न्यूनता की संभावना ही नही होती जिसकी पूर्ति की आवश्यकता हो, फिर भी ज्ञानीजनों के वक्तव्य में गाम्भीर्य अवश्य होता है और यदि उस गाम्भीर्य का स्पष्ट अर्थ न समझाया जाय तो वाचक वर्ग की जिज्ञासा बहुधा अतृत ही रह जाती है और कभी २ समझफेर हो जाने का भय भी रहता है । ऐसे प्रसंगो में गम्भीर वक्तव्यों के हृदय (आन्तरिक रहस्य) को स्पष्ट एवं रोचक भाषा में व्यक्त करने में यदि अनुवादक अपनी विवेकशक्ति एवं भावना का शुभ उपयोग करे तो वह अप्रागिक तो नहीं माना जा सकता ।
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