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सुवायशुद्धि
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योग्य हो जायगे, अथवा अभी खाने योग्य है, बादमें सड जायगे, अथवा अभी इन्हें काटकर खाना चाहिये इत्यादि प्रकार की सावद्य भापा साधु न बोले किन्तु खास आवश्यकता होने पर यों कहे कि "इस श्रामवृनमें बहुत से फल लगे हैं जिनके बोझसे वृत भुक कर नन हो गये हैं। इस बार फल बहुत अधिक आये हैं, अथवा ये फल अतिशय सुन्दर हैं इत्यादि प्रकार
की निरवद्य भाषा ही बोले। [३४] और अन्नकी बेलों या फलियों को, बालोंको अथवा सेंगा
फलियों के संबंध, यदि कुछ कहने का अवसर प्रावे तो बुद्धिमान साधु यों न कहे कि पक गई हैं इनकी छाल हरी हैं, यह पापडी पक गई हैं और लूनने योग्य हैं, अथवा ये
सेकने योग्य हैं। अथवा इन अन्नों को भिगोकर खाना चाहिये। [३२] परन्तु बुद्धिमान साधु यदि आवश्यकता था पडे तो यों
कहे कि “यहां वनस्पति खूब उगी हैं, बहुत अंकुर फूट निकले हैं, इनमें मोर, वाल आदि निकल आये हैं, इन वृक्षोंकी छाल इतनी मजबूत है कि जिसपर पालेका कोई असर नहीं पड़ेगा, इनके गर्भ में दाना श्रागया है अथवा दाना बाहर निकल आया हैं, इस अन्नके गर्भमें दाना नहीं पडा है अथवा चावल की वालोंमें दाना पड गया है" इस प्रकार की निरवद्य भापा
ही बोले। T३६] यदि किसीके यहां दावत हुई हो तो उसे देखकर "यह
सुन्दर बनी है या सुन्दर बनाने योग्य है, अथवा किसी चोर को देखकर "यह चोर मारने-पीटने योग्य है" तथा नदियों को देखकर 'ये सुन्दर किनारेवाली हैं। इनमें तैरने या क्रीडा करने से बड़ा मजा आयेगा, इत्यादि प्रकार की सावध भाषा न वोले।