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दशवकालिक सूत्र
टिप्पणी-जिस वचनके निमित्तसे अन्य प्राणियोंको दुःख न पहुंचे वैसी दोष रहित भाषा ही साधु वोले । [२६४२७] तथा उद्यान, पर्वत या वनमें गया हुया अथवा वहां
जाकर निवास करनेवाला बुद्धिमान साधु वहां के बडे २ वृतों को देखकर इस तरह के शब्द न बोले कि "मे इन, वृक्षों के काष्ट महेल के योग्य स्तंभों, घरों के योग्य तोरणों, पाटीया (स्लीपर), शहतीर, जहाज, अथवा नावों आदि बनाने के
योग्य हैं। [२] तथा यह वृक्ष बाजोठ, कठोठी, हल की मूठ, खेतमें अनके ढेरों
पर ढंकने के लकडी के ढक्कन, धानीकी लाट, गाडीके पहिये या उसके मध्य की नाभि अथवा चरखे की लाट अथवा सुनार
की एरण बनाने के योग्य हैं। [२१] अथवा बैठने के श्रासन के लिये, सोने के पलंग के लिये,
घरकी नसैनी (सीढी) आदि के लिये उपयुक्त हैं-इत्यादि प्रकार की हिंसाकारी भाषा बुद्धिमान भिन्नु कभी न बोले ।
टिप्पणी-ऐसा बोलनेसे कहीं कोई उस वृक्ष को काट कर उक्त सामान बना डाले तो वह भिन्नु उक्त हिंसामें निमित्त माना नायगा। ३०४३१] इस लिये उद्यान, पर्वत तथा वनमें गया हुआ बुद्धिमान
मितु वहां के बडे २ वृक्षों को देखकर यदि अनिवार्य आवश्यकता आ पडे तो ही यों कहे; "ये अशोकादि वृक्ष उत्तम जातिके हैं, ये नारियलके वृक्ष बहुत बड़े हैं, ये प्रामके वृक्ष चर्तृलाकार हैं, बड़ आदि वृह अच्छे विस्तृत हैं, तथा ये सब शाखा, प्रति
शाखाओं से व्याप्त, रमणीय एवं दर्शनीय इत्यादि इत्यादि हैं।" [३२४३३] और आम आदि फल हों तो वे पक गये हैं। अथवा पाल
आदिमें देकर पकाने योग्य हैं अथवा वे कुछ समय बाद खाने