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दशवकालिक सूत्र अथवा तिर्यंच योनि में गमन करता है जहां सम्यक्त्व (सद्बोध)
की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है । [४] इत्यादि प्रकार के दोषों को देखकर ही ज्ञातपुत्र भगवान
महावीर ने आज्ञा दी है कि बुद्धिमान साधक जहां लेशमात्र भी
मायाचार या असत्याचार होता हो उसे छोड़ दे। [१०] इस प्रकार संयमी गुरुओं के पास से भिक्षा की गवेषणा
संबंधी शुद्धि को सीखकर तथा इन्द्रियों को समाधि में रखकर तीव्र संयमी तथा गुणवान भिक्षु संयम मार्ग में विचरण करे।
टिप्पणी-निर्भयता, भिन्तु का मुद्रालेख है। सन्तोष उसका सदा का संगी भित्र है। इसलिये भिक्षा उपस्थित होते हुए भी न मिलने पर अथवा अग्राह्य होने से छोड देने पर वह दीन अथवा खेदखिन्न नहीं होता।
रसवृत्ति का त्याग, पूजा सत्कार को वांछा का त्याग और अपथ्य वस्तुओं का त्याग ये तीन भिक्षावृत्ति के स्वाभाविक गुण है। सद्गुणों के भंडारमें वृद्धि करते २ ऐसा संयमी साधु सहजानंद की लहरमें ही एकांत. मस्त रहता है।
ऐसा मैं कहता हूं:इस प्रकार 'पिण्डैषणा' नामक पांचवां अध्ययन समाप्त हुआ।