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• पिंडेपणा
[ ४३] उस मितु के कल्याणरूपी संयम की तरफ तो देखो जो "अनेक साधुयों द्वारा पूजा जाता है और मोक्ष के विस्तीर्ण अर्थका अधिकारी होता है । उसका गुण कथन मैं करता हूं, उसे तुम सुनो:
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[४४] उपरोक्त, प्रकार के सद्गुणों का इच्छुक तथा दुर्गुणों का त्यागी मितु मरण पर्यन्त हमेशा संवर धर्म का श्राराधन करता रहता है।
[४२] ऐसा श्रमण श्राचार्यों तथा अन्य साधुओं की भी आराधना (उपासना) करता है और गृहस्थ भी उस को वैसा उत्तम मितु जानकर उसकी पूजा करते हैं ।
[४६ ] जो मुनि तपका, वाणीका, रूपका तथा श्राचार भावका चोर होता है वह देवयोनि को प्राप्त होने पर भी किल्बिपी जात (निम्न कोटि) का देव होता है ।
टिप्पणी- जो वस्तुतः नप न करता हो का ढोंग करता हो, जिसकी वाणी, रूप, तथा फिर भी उनको वैसा बताने का ढोंग करता हो वह जैन शासन की
फिर भी तपत्वी कहलाने श्राचरण शास्त्रविहित न हों
दृष्टि 'चोर' ( भिक्षु ) है ।
[ ४७ ] किल्विष जाति के निम्न देवलोक में उत्पन्न हुआ देवत्व प्राप्त कर के भी 'किल कर्म से मेरी यह इस वात को जान नहीं सकता
वह साधक गति हुई '
टिप्पणी- - उच्च कोटि के देवों को ही उत्तम प्रकार के भोगसुख प्राप्त होते हैं और उन्हीं का ज्ञान इतनी निर्मल होता है कि जिससे वे बहुत से पूर्व जन्मोंका हालजान सकते है ।
[ ४८] वह किल्विषी देव वहां से चयकर ( गति करके ) सूक ( जो बोल न सके ऐसे ) बकरे की योनि में, नरक योनि में