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षड् जीवनिका
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उत्क्रांति का क्रम [११] धर्म का यथार्थ श्रवण कर ज्ञानी साधक कल्याणकारी क्या
है तथा पापकारी क्या है इन दोनों पर विचार कर निणय
करे और उनमें से जो हितावह हो उसीको ग्रहण करे। [१२] जो जीव (चेतनतत्त्व) को भी जान नहीं सकता और अजीव
(जडतत्त्व) को भी नहीं जान सकता वह जीवाजीव को नहीं जान सकने के कारण संयम को कैसे जान सकेगा?
टिप्पणी-सबसे पहिले आत्मतत्त्व को जानना उचित है उसको जानने से अजीव तत्त्व का भी शान हो जायगा और इन दोनों तत्त्वों को यथार्थ रीतिसे जानने पर ही समस्त जगत के स्वरूप की प्रतीति हो जायगी
और वैसी प्रतीति होने पर ही सच्चे संयमको समझकर उसकी आराधना हो सकती है। [१३] जो कोई जीव तथा अजीव को जानता है वह जीवाजीव को
जानकर संयम को भी यथार्थ रीतिसे जान सकेगा। शान प्राप्ति से लेकर मुक्तदशा तक का ऋसिक विकास [१४] जीव तथा अजीव इन दोनों तत्त्वों के ज्ञान होजाने के बाद
सब जीवों की बहुत प्रकार की (नरक, तिर्यच, मनुष्य तथा
देव संबंधी) गतियों का भी ज्ञान होजाता है। [११] सब जीवों की सर्व प्रकार की गतियों के ज्ञान होजाने पर
वह साधक पुण्य, पाप, बंध तथा मोक्ष इन चारों वातों को
भी भलीभांति जान जाता है। . . टिप्पणी-पाप और दूध से क्या गति होती है ? पुण्यसे कैसा बायसुख मिलता है और कर्ममुक्तिसे कैसा आत्मिक आनंद मिलता है आदि -सभी वातें ऐसा साधक ही वरावर समझ सकता है।