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दशवैकालिक सूत्र
उपयोग रखनेवाला अर्थात्
टिप्पणी- वस्तुतः उपयोग ही धर्म है। प्रत्येक क्रिया को जागृत भावसे करनेवाला साधक इरादापूर्वक पापकर्म नहीं करता है और उठते बैठते, चलते फिरते, खाते पीते आदि क्रियाओं में जो कुछ भी स्वाभाविक रूपमें पापकर्म हो जाता है उसका निवारण वह शीघ्र ही तपश्चर्या एवं पश्चात्ताप द्वारा कर डालता है I
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[8] जो यावन्मात्र प्राणियों को अपने प्राणों के समान मानता है तथा उनपर समभाव रखता है और पापास्रवों (पापके श्राग-मनों) को रोकता है ऐसा दमितेन्द्रिय संयमी को पापकर्म का बंध नहीं होता ।
टिप्पणी- समभाव, आत्मभाव, पापत्याग तथा इन्द्रिय दमन ये चार गुण पापबंध को रोकते हैं । इनसे नूतन कर्मास्रव नहीं होता इतना हो नहीं किन्तु पूर्वकृत पाप भी क्रमशः नष्ट हो जाते है ।
[१०] सबसे पहिला स्थान ज्ञान (सारासार का विवेक) का है और उसके बाद दया का स्थान है । ज्ञानपूर्वक दया पालने से ही साधु सर्वथा संयमी रह सकता है ऐसा जानकर ही संयमी पुरुष उत्तम आचरण करते हैं क्योंकि अज्ञानी जन, हमारे लिये ' क्या वस्तु गुणकारी (कल्याणकारी) अथवा क्या पापकारी ( हितकारी ) है उसे नहीं जान सकते ।
कर डाले ।
यदि
श्रहिंसा में
टिप्पणी- ऊपर की सभी गाथाओं में केवल प्राणीदया का विधान किया गया है इससे संभव है कि कोई दया का शुष्क अर्थ इसी लिये यहां सबसे पहिले ज्ञान को स्थान दिया है । विवेक नं रक्खा जायगा तो ऊपरसे दीखनेवाली अहिंसा भी परिणत हो जायगी इसलिये प्रत्येक क्रियामें विवेक का स्थान सबसे पहिले. रक्खा है।
हिंसा रूपमें