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दशवेकालिक सूत्र
[ १६ ] पुण्य, पाप, बंध और मोत के स्वरूप समझमें श्राने पर
वह साधक समस्त दुःखों के मूल स्वरूप देव एवं मनुष्य आदि संबंधी भोगों से निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त होता है (अर्थात् वैराग्य को प्राप्त होकर काम भोगों से निवृत्त होता है )
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[१७] देव, मनुष्य श्रादि संबंधी भोगों से वैराग्य हो जाने पर वह साधक आभ्यंतर एवं बाह्य संयोगों की आसक्ति का त्याग करकी तरफ कृष्ट होता है ।
टिप्पणी- आभ्यंतर संयोग अर्थात् कृष्णयादि का संयोग एवं बाह्यसयोग अर्थात् कुटुंबीजन आदि का संयोग |
[१८] श्राभ्यंतर एवं बाह्य संयोगों की श्रासक्ति छूट जाने पर वह साधक संवर ( पाप का निरोध) रूप उत्तम धर्म का स्पर्श करता है । (अर्थात् उसी दशामें ही उत्तम धर्म को ग्रहण करने की उसमें पात्रता आती है)
टिप्पणी- उत्तम धर्म अर्थात् आध्यात्मिक धर्म । इतनी सोढियां चढ चुकने के बाद ही वह आध्यात्मिक धर्म का आराधन करने के योग्य हो पाता है ।
[२०] संवर रूप उत्कृष्ट धर्म का स्पर्श होने पर ही प्रबोधि (ज्ञान) रूपी कलुषताजन्य पूर्वसंचित पापकर्म रूपी मैल दूर किया जा सकता है।
[२१] अज्ञानजन्य अनादि काल से संचित कर्मरूपी मैल दूर होने पर ही वह साधक सर्व लोकव्यापी केवलज्ञान एवं केवलदर्शन की प्राप्ति करता है ।
टिप्पणी- जिस के द्वारा संसार के यावन्मात्र पदार्थों के भूत, वर्तमान एवं भविष्य इन तीनों कालों की समस्त पर्यायों का एक ही साथ संपूर्ण ज्ञान होता है उस संपूर्ण ज्ञान को जैन धर्ममें ' केवलज्ञान ' कहा है ।