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दशवकालिक सूत्र
[२०] इसलिये संयम में स्थिर चित्तवाला धर्मजीबी निग्रंथ पुरुप क्रीत,
ओद्देशिक, शाहृत श्रादि दोपों से युक्त आहार पानी ग्रहण नहीं करता।
टिप्पणी-इतका सविस्तर वर्णन जानने के लिये इसी ग्रंथ का तीसरा अध्ययन देखो। [१] (चौदहवां स्थान) गृहस्थ के कांसा श्रादि धातुओं के प्यालों,,
दूसरे वर्तनों (गिलास, लोटा, थाली आदि) अथवा मिट्टी के वर्तन में आहार करनेवाला मितु अपने संयम से भ्रष्ट हो
जाता है। [१२] (क्योंकि गृहस्य के वर्तनों में जीमने से) उसके वर्तनों को
यदि धोना पड़े तो ठंडे सचित्त पानी की हिंसा होगी और उसको दूर फेंकने से अन्य बहुत से जीवों की हिंला होगी, इसीलिये तीर्थकरादि देवोंने वैला करनेमें असंयम कहा है।
टिप्पणी-ऊपर पर से देखने से तो यहां ऐता मालून होता है कि पदि ऐसी सामान्य बातले भी साधुके संयम का लोप हो जाया करें तो संचमी पैले जीवित रह सकता है ? परन्तु इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करने पर मालूम हो जायगा कि सामान्य दोसती हुई खलना भी क्रमशः थोडी २ देर बाद दूसरी अनेक भूलों को जन्म देती रहती है और अन्तने परिणाम रतना भयंकर आता है कि संवन से भ्रष्ट होने का मौका आ पडता है। इसीलिये साधु के लिये सामान्य जैसी भूलों से सतत जागृत रहने का विधान किया है।
गृहस्थों के वर्तनों में भोजन करने से संयमी में इतर दोषों के भी पैदा होजाने की संभावना है इसीलिये अपने ही काठ, मिट्टी के पात्रों में भोजन करने का संयमी के लिये विधान किया गया है।