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________________ दशवकालिक सूत्र - - - के अंगारों की अग्नि, वी श्रादि की लौंडी की अग्नि, दीप आदि की शिखाकी अग्नि, कॅडे की अग्नि, लोहे की अग्नि, उल्कापात विजली श्रादि की अग्नि आदि अनेक प्रकार की अग्निओं को वायु द्वारा अधिक बढाना या बुझाना न चाहिये। उनको परस्पर इकट्ठा कर संघटन न करना चाहिये, उसपर धूल आदि डालकर उसका भेद न करना चाहिये । उसमें ईधन लकडी डालकर उसे प्रज्वलित (वढाना) अथवा घटाना न चाहिये। उसको दूसरोंके द्वारा वायुसे न चढवावे, संघटन न करावे, धूल आदि डालकर भेद न करावे, इंघन लकडी डलवाकर उसे अधिक प्रचलित अथवा वढाने की क्रिया न करावे और न 'उसे बुमवावे ही। यदि कोई दूसरा हवा से अग्निको वढा रहा हो, 'परस्परमें संघटन (इकठ्ठी) करता हो, धूल द्वारा उसको छिन्नभिन्न करता हो, उसे सुलगाता अथवा प्रज्वलित कर रहा हो अथवा बुझाता हो तो वह ठीक कर रहा है ऐसा कभी न माने (अर्थात् उसकी अनुमोदना न करें)। शिष्यः-हे पूज्य ! मैं जीवनपर्यन्त मनसे, वचनसे, और कायसे ऐसा काम न करूंगा, कराऊंगा नहीं तथा अनुमोदन भी नहीं करूंगा। पूर्वकालमें तत्संबंधी मुझसे जो कुछ भी पाप हुआ हो उससे अब मैं निवृत्त होता हूं। अपनी आत्माकी साक्षीपूर्वक उस पापकी मैं निंदा करता हूं। अापके समत मैं उसकी गर्हणा करता हूं और अवसे ऐसे पापकारी कर्मसे अपनी आत्माको सर्वथा अलिप्स करता हूँ ॥१॥ गुरु-पापसे विरक तथा नये पापकर्मों के बंध का प्रत्याख्यान लेनेवाले संयमी साधु अथवा साध्वीको, दिन में या रातमें, एकांत या साधुसमूहमें, सोते जागते या किसी भी अवस्थामें स्वच्छ सफेद 'चंबरों से, पंखे से, ताड के पन्ने के पंखे से, पत्रे से, पत्रे के टुकडे से, वृक्ष की शाखा से अथवा शाखा के टुकडे से, मोरपंख की
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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