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हम पुष्पिका
इसे ' तपश्चर्या ' कहते हैं । तप के १२ मेद हैं जिनका वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र में किया है ।
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अहिंसा में स्व (अपना) तथा पर ( दूसरों) दोनों का हित है इससे सभी को शांति और सुख मिलता है, इसीलिये हिंसा को धर्म कहा है । संयम से पापपूर्ण प्रवृत्तियों का विरोध होता है, तृष्णा मंद पड जाती है और ऐसे संयमी पुरुष ही राष्ट्रशांति के सच्चे उपकारी सिद्ध होते है 1 अनेक दुःखितों को उनके द्वारा आश्वासन मिलता है, असहाय एवं दीनजनों के करुणाश्रु उनके द्वारा पोंछे जाते हैं, इसीलिये संयम को धर्म कहा है । - तपश्चर्या से अन्तःकरण की विशुद्धि होती है; अन्तःकरण की विशुद्धि से ही - यावन्मात्र जीवों के ऊपर मैत्रीभाव पैदा होता है, इस मैत्रीभाव से आत्मा सब का -कल्याण करना चाहती है, किसी का अहित वह नहीं करती; करना तो दूर रहा -सोचती तक भी नहीं है, इसलिये तपश्चर्या को धर्म कहा है। इस प्रकार इन तत्त्वों द्वारा सामाजिक, राष्ट्रीय, और आध्यात्मिक तीनों दृष्टियों का समन्वय, शुद्धि एवं विकास होता है, इसलिये इन तीनों तत्त्वों की सभी क्रियाएं धर्मक्रियाएं मानी गई है। ऐसे धर्म में जिनका मन श्रोतप्रोत हो रहा है वे यदि मनुष्यों द्वारा ही नहीं किंतु देवों द्वारा भी वंद्य हो तो इसमें आश्चर्य त्या है ? ऐसे धर्मिष्ट के आसपास का वातावरण इतना निर्मल और ऐसा अलौकिक सुन्दर हो जाता है कि वह सबको मोह लेता है और देवताओं के उन्नत मस्तक भी वहां सहज हो झुक जाते हैं ।
[२] जैसे भ्रमर वृक्षों के फूलों में से मधु चूसता है ( रस पीता है) उस समय वह उन फूलों को थोडी सी भी क्षति नहीं पहुंचाता किन्तु फिर भी वह वहां से अपना पोषण ( श्राहार) प्राप्त करता है;
[३] उसी तरह पवित्र साधु संसार के रागबंधनों (ग्रंथी) से रहित होकर इस विश्वमें रहते हैं; जो फूलमें से भ्रमर की तरह इस संसार में मात्र अपनी उपयोगी सामग्री (वस्त्रपानादि) तथा