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दशवकालिक सूत्र
इसलिये उनकी शिक्षाको अस्वीकार करना अथवा उसकी अवगणना करना मानों आपत्ति तथा पतनको आमंत्रण देनेके समान विचारशून्य अयोग्य कार्य है।
गुरुदेव वाले:[२] जो साधक अमिमानसे, क्रोधसे, मायाचारसे, अथवा प्रमाद से
गुरुदेव (साधु समुदाय के प्राचार्य) के पास विनय (विशिष्ट कर्तव्य) नहीं करता है वह अहंकार के कारण सचमुच अपने पतनको ही बुलाता है और जिस तरह वांसका फल वांसको ही नाश करता है उसी तरह उसको प्राप्त शक्ति उसी के नाशकी.
तरफ खींच ले जाती है। [२] और जो कोई साधक अपने गुरुको मंद अथवा थोडी उमरका
जानकर अथवा उनको थोडा ज्ञान है ऐसा 'मानकर उनकी अवगणना करता है, 'अथवा ' उनको कटुवचन कहता है वह सचमुच कुमार्गमें जाकर अन्तमें अपने गुरुको भी बदनाम
करता है। . [३] बहुत से गुरु (वयोवृद्ध होने पर भी) प्रकृति से ही बुद्धिर्मे
मंद होते हैं। बहुत से वयमें छोटे होने पर भी अभ्यास एवं 'बुद्धिमें बहुत आगे बढे हुए होते हैं। भले ही ये ज्ञानमें भागे
पीछे हों किन्तु वे सब साधुजनों के आचारसे भरपूर तथा 'चारित्रके गुणों में ही तल्लीन रहनेवाले तपस्वी पुरुष हैं। इस लिये उनका अपमान करना ठीक नहीं 'क्योंकि उनका अपमान अग्निकी तरह अपने सद्गुणोंको भस कर देता है। ...
टिप्पणी क्षमा, दया, इत्यादि सदगुणोंके धारक गुरु स्वयं किसीका भी अकल्याण करनेकी इच्छा नहीं करते किन्तु ऐसे महापुरुषोंका अपमान. करनेसे स्वभावत: उसी अपमान करनेवालेका ही नुकसान होता है क्योंकि चारित्र