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विनयसमाधि
१४३ सांधन करने के लिये आवश्यक अंकुश दूर हो जानेसे उसके पतनकी हो अधिक संभावना रहती है। [४] यदि कोई मूर्ख मनुष्य सांपको छोटा जानकर उससे छेड़छाड़
करे तो उसका उस सर्पद्वारा अहित ही होगा। इसी तरह नो कोई अज्ञानी अपने श्राचार्यका अपमान करता है वह अपने
अज्ञानसे अपनी जन्ममरणकी परंपराको बढाता है। २ क्रुद्ध हुधा दृष्टिविप सर्प प्राणनाशसे अधिक और क्या मुकसान
कर सकेगा! (अर्थात् मृत्युसे अधिक और कुछ नहीं कर सकता) कन्तु जो मूर्ख अपने प्राचार्यों को प्रसन्न करता है वह साधक गुरुको श्रासातना करनेसे अज्ञानता को प्राप्त होकर मुक्तिमार्ग से बहुत दूर हो जाता है।
टिप्पणी-यह पूर्णोपमाका श्लोक नहीं है इसलिये सांपकी पूर्ण उपमा आचार्यों पर पटित नहीं होती। यह तो एक दृष्टांत है और दृष्टांत दान्त्यि के केवल एक अंशको ही लागू होता है। सारांश यह है कि सांप अपने वैरीसे बदला लेने की भरसक कोशिश करता है किन्तु आचार्यका तो वैरी ही कोई नहीं होता; यदि कोई वैरी होगया तो भी वे वदला लेनेकी कल्पना तक भी नहीं करेंगे। किन्तु ऐसा अविवेकी साधक स्वयं अपने ही दोपसे दुःखी होता है, उसमें गुरुका कोई दोष नहीं है। गुरुको अपमान को दृष्टिविष सर्पसे उपमा दी है। रष्टिविप सर्प उसे कहते हैं कि जिसे देखते ही (काठनेकी तो बात ही क्या है!) विप चढजाय और मृत्यु हो जाय । गुरुका अपमान साधकके लिये इस विपसे भी अधिक भयंकर है क्योंकि वह विप तो एक ही वार मृत्यु लाता है किंतु गुरुकी अप्रसन्नता तो जन्म-मरण के चक्रोंमें ही घुमाया करती है क्योंकि ऐसा आदमी मोक्षमार्गसे बहुत दूर हो जाता है। [६] जो कोई साधक गुरुका अपमान करके आत्मविकास साधनेकी
इच्छा करता है वह मानो जीनेकी प्राशासे अग्निमें प्रवेश करता ११