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दशवैकालिक सूत्र
अथवा अमर होनेकी
है। दृष्टिविष सर्पको क्रुद्ध करता है श्राशासे विष खाता है!
टिप्पणी-जिस तरह जीनेको इच्छावाला व्यक्ति उक्त तीनों प्रकारके कार्योंसे दूर रहता है उसी तरह आत्माविकासका इच्छुक साधक गुरुके अपमान से दूर रहे।
कदाचित् (विद्या या मंत्रवल से) अग्नि भी न जलावे, क्रुद्ध दृष्टिविप सर्प न भी काटे, हलाहल विप भी घात न करे किन्तु गुरुका तिरस्कार कभी भी व्यर्थ नहीं जाता है (अर्थात् सद्गुरुका तिरस्कार करनेवाला साधक संयमसे भ्रष्ट हुए विना नहीं रहता।)
टिप्पणी-गुरुजनोंका तिरस्कार मोक्षका प्रतिबंधक शत्रु है, इसमें लेश मात्र भी अपवादको स्थान नहीं है। इसलिये आत्मार्थी साधकको उपकारी गुरुओं के प्रति सदैव विनीत रहना चाहिये। 14] यदि कोई मूर्ख अपने माथेसे पर्वतको चुर २ करनेकी इच्छा करे
(तो पर्वतके बदले अपना ही सिर चुर २ कर लेगा) सुप्त सिंहको उसके पास जाके जगाये, भालेकी नोंक पर लात मारे (भालेका तो कुछ न बिगडेगा, किन्तु पेर के टुकडे २ हो जायंगे) तो जिस प्रकार दुःखी होता है उसी प्रकार गुरुजनों के
तिरस्कार करनेवालोंकी दुःखद स्थिति होती है। [+] मान लिया कि (वासुदेव सरिखा पुरुष) अपनी अपरिमित
शक्तिसे किसी मस्तक द्वारा पर्वतको चूर २ कर दे, कुछ सिंह भी कंदाचित् भक्षण न करे और भालेकी नोंक भी कदाचित् पैरको न भेदे तो भी गुरुदेवका किया हुन्ना तिरस्कार अथवा अवगणना साधकके मोदमार्गमें बाधा उत्पन्न किये बिना नहीं रहती।
को जुर २ करने की इच्छा कर