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पिंडेपणा
साथ सह भोजनवृत्ति और प्राप्त भोजन को निरासक्त भाव से ग्रहण करना इन समस्त बातों के आन्तरिक रहस्य को समझकर आचरण करनेवाला साधु ही आदर्श भिन्तु है। ऐसे आदर्श भिक्षु की भिक्षावृत्ति दाता के चित्तमें संयम एवं त्याग के संस्कारों को जन्म देती है।
- ऐसी भिक्षावृत्ति से संयमी जीवन का निर्वाह करना यही तो पिण्डैपणा का रहस्य है और किसी भी प्रकार के भौतिक स्वार्थ अथवा कीर्ति को लालसा के बिना निःस्वार्थ भावसे दान करना यही दाता का कर्तव्य है और यही भाव उसे आध्यात्मिक विकासमें प्रेरित करता है।
ऐसा मैं कहता हूं:इस प्रकार ‘पिंडैपणा' नामक पंचम अध्ययनका प्रथम उद्देशक
समाप्त हुआ।
दूसरा उद्देशक
भिक्षा शरीर की पुष्टि अथवा जिह्वा की लोलुपता की तृप्ति के लिये नहीं है और न वह प्रमोद अथवा आलस्य बढाने के ही लिये है। भिक्षा का समीचीन एकतम उद्देश्य जीवनप्रवाह को उस हद्द तक जीवित रखने का है जब तक पूर्ण रूपसे आत्मसिद्धि न हो । भिक्षा ग्रहण करने का उद्देश्य इस शरीर को तब तक जीवित रखने का है जब तक कि संपूर्ण · कर्मक्षय न हो जाय । शरीर के अस्तित्व के विना कर्मनाश नहीं हो सकता और उस शरीर को केवलं जीवित रखने के लिये ही साधु भिक्षा ग्रहण करता है। अन्य मोजनों की अपेक्षा भिक्षा का जो महत्त्व है वह इसी दृष्टि से है। यही कारण है. कि सामान्य, जनों का भोजन. पापबंध काः कारणं होता है किन्तु वही साधु के लिये शुभकर्मास्रव कर्मनिर्जरा कर्मक्षय