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दशवकालिक सूत्र
संयमी साधु बहुए या खट्टे भोजन को भी चिपूर्वक ग्रहण करे और ननमें पुछ भी विकार न लावे। [8] प्राप्त हुआ भोजन यदि रस (धार) रहित हो अथवा पुराने
अन्न का हो, उत्तम प्रकार के शाक आदि सामग्री ले सहित हो अथवा रहित हो, स्निग्ध (धी आदि सञ्चिकण पदार्थों से सहित) हो अथवा रूखा हो, दलिया हो अथवा उडद के
चुन्नी चोकर का बना हो। [६] (और) वह भोजन चाहे थोडा मिले या अधिक मिले फिर
भी (किसी भी दशाम) साधु प्राप्त भोजन की अथवा उसके दाता की निंदा न करे परन्तु वह मुधाजीवी (कवल संयम रक्षार्थ भोजन करने का उद्देश्य रखनेवाला) साधु निर्जीव, निर्दोप, और सरलता से प्राप्त आहार को निःस्वार्थ भाव से
शांतिपूर्वक आरोगे। [१००] (महापुरुष कहते हैं कि) इस दुनियांमें किसी भी प्रकार के
वदले की आशा रक्खे विना केवल निःस्वार्थ भाव से भिक्षा देनेवाला दाता और केवल संयम के निर्वाह के लिये ही निःस्वार्थ भाव से मिक्षा ग्रहण करनेवाला साधु इन दोनों का मिलना वडा ही दुर्लभ है। निःस्वार्थी दाता और निःस्वार्थी भिनु दोनों ही उत्तम गति को प्राप्त होते हैं।
टिप्पणी-सरल मार्ग पर गमन करना, अपने उपयोगी कार्य में हो सावधानी, जाते आते हुए मार्ग के सूक्ष्म जीवों की लक्ष्यपूर्वक रक्षा, दूसरे भिक्षुकों को किंचित मी दुःख या आघात पहुंचाये विना और दाता की प्रसन्नता भी दरावर दनी रहे ऐसी विशुद्ध भिक्षा को गवेषणा, दाता गफलत (भूल) न करे अथवा खिन्न न हो इस बात का सतत उपयोग, निर्जीव खानपानमें सतत जागृति, भिक्षावृत्ति के स्वरूप का चिन्तवन, अन्य साधकों के