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दशवकालिक सूत्र का कारण है। दोनों का काम एक ही है किन्तु उन दोनों की विचारश्रेणी दूसरी ही हैं और उद्देश्य भी दूसरे ही हैं। सामान्य गृहस्थ शरीर पुष्टि के लिये भोजन करता है और साधक मुनि अध्यात्म को पुष्ट करने के लिये भोजन करता है सामान्य भोजन से मुनि की भिक्षा में यही अन्तर है।
कोई यह न समझे और कम से कम मुमुक्षु साधक तो यह कभी भी नहीं समझता कि यह शरीर केवल हाड, मांस, मजा, मल आदि का भाजन है, निसार है, इसकी क्या चिन्ता ? यदि यह सूख गया तो क्या और इसके प्रति उपेक्षा रहे तो क्या ? वस्तुनः देखा जाय तो ऐसा करना तपश्चरण. नहीं है प्रत्युत एक भयंकर जड क्रिया है। जो साधक शरीर रक्षा की तरफ उपेक्षा करता है वह अपने उद्देश्य की उपेक्षा करता है। जिस तरह दूर की यात्रा करनेवाला चतुर यात्री अपनी सवारी (घोडा, ऊंट आदि) का ध्यान रखता है, उसको खानापानी देकर व्यवस्थित रखता है ठीक वैसे ही चतुर साधक अपने शरीर रूपी सवारी को कभी भी उपेक्षा दृष्टि से नहीं देखता । जिस तरह वह यात्री घासपानी के साथ २ उसे सोने चांदी के गहने नहीं पहिनाता अथवा रेशमी या मखमली गद्दी (जीन) कसने की चिंता करता है इसी तरह साधक मुनि भी इस शरीर की खोटी टापटीप, इसको पुष्ट बनाने आदि में नहीं लग जाता। यदि ऐसा करेगा तो वह अपने उद्देश्य को भूल जायगा । उसकी आत्मसिद्धि या लक्ष्यसिद्धि कभी नहीं होगी। इसी तरह शरीर को पुष्ट करनेवाले उद्देश्य भ्रष्ट साधु का शरीर उन्मत्त घोडे की तरह उसे विषयविकारों के गड्ढे में डाल देता है।
उक दोनों वातों को भली प्रकार समझकर चतुर साधु जिस मध्यस्थवृत्ति से भिक्षावृत्ति करते हैं उसका यहां वर्णन किया जाता है।