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पिंडेपणा
गुरुदेव बोले :
[१] संयमी भिक्षु संपूर्ण आहार को, भले ही वह सुगंधित (मोहक आदि) हो अथवा गंधरहित (बिलकुल सामान्य भोजन) हो, पात्र में अंतिम लेप ( अंश) लगा हो उसको भी उंगली से साफ कर के श्रारोगे किन्तु पात्रमें कुछ भी श्रंश वाकी न छोडे ।
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टिप्पणी- अंतिम लेप ( अंश ) भी न छोडे ऐसा विधानकर इस गाथा अपरिग्रहिता तथा स्वच्छता रखने की तरफ इशारा किया है 1
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[२] उपाश्रयमें या स्वाध्याय करने के स्थानमें बैठे हुए साधु को गोचरी से प्राप्त भोजन अपर्याप्त होने पर (अर्थात् उससे उसकी भूख न जाय )
[३] अथवा अन्य किसी कारण से अधिक भोजन लेने की श्रावश्यकता पडे तो वह पूर्वोक्त (प्रथम उद्देशक में कही हुई) विधि तथा इस (जिसका वर्णन यागे किया जाता है उस ) विधि से अन्नपानी की गवेपणा (शोध) करे ।
[४] चतुर भिक्षु, भिक्षा मिल सके उस समय को भिक्षाकाल जानकर गोचरी के लिये निकले और जो कुछ भी अल्प या परिमित
श्राहार मिले उसे ग्रहण कर भिक्षाकाल पूर्ण होते ही अपने स्थानक पर वापिस आ जाय । अकाल ( समय के विरुद्ध कार्य ) को छोडकर यथार्थ समय में उसके अनुकूल कार्य ही करे ।
टिप्पणी- किस समय में क्या काम करना आचरण करना चाहिये आदि क्रियाओं का भिक्षु रखना चाहिये ।
चाहिये किस प्रकार
को सतत उपयोग
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