________________
६४
दशवैकालिक सूत्र
नहीं कराता और न दूसरों को वैसी हिंसा करते देखकर उसकी अनुमोदना ही करता है ।
[३१] क्योंकि जलकाय जीवों की हिंसा करनेवाला जलके श्राश्रय रहनेवाले दृश्य एवं दृश्य भिन्न २ प्रकार के अनेक त्रस एवं स्थावर जीवों की भी हिंसा कर डालता है ।
टिप्पणी- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति सरीखे सूक्ष्म जीवों की संपूर्ण अहिंसा का पालन करना गृहस्थ जीवन में सुलभ नहीं है इसलिये गृहस्थ श्रावक के प्रथम व्रतमें सुसाध्य केवल त्रस जीवों की हिंसा का हो त्याग कराया है और उसमें भी अपना कर्तव्य बजाते समय एवं अनेक प्रसंगो में खास अपवाद नियमों का भी विधान किया है किन्तु उनसे पृथ्वी, जल आदि जीवों का गृहस्थ मनमाना दुरुपयोग या नाश करे ऐसी छूट नहीं दी गई । सातवें व्रत में गृहस्थ को खास तौरपर चेताया गया है कि वह आवश्यकता से अधिक किसी भी पदार्थ का उपयोग न करे और छोटे वडे प्रत्येक कार्यमें जीवरक्षा की सावधानता एवं विवेक रखखे । *
[३२] यह पाप दुर्गति का कारण है ऐसा जानकर जलकाय के समारंभ को साधुपुरुष जीवनपर्यन्त के लिये त्याग दे ।
टिप्पणी- जैन सूत्रों में 'आरंभ' एवं ' समारंभ' के अर्थ 'हिंसक
• क्रिया करना' और 'हिंसक क्रिया के साधन जुटाना ' हैं ।
1
[३३] ( नौवां स्थान ) साधु पुरुष श्रभि सुलगाने की कभी भी इच्छा न करे क्योंकि वह पापकारी है और लोहे के अस्त्रशस्त्रों की भी पेक्षा अधिक एवं प्रति तीक्ष्ण शस्त्र है और उसको सह लेना अत्यंत दुष्कर है ।
[३४] और भी (अग्नि) पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण इन चारों दिशाओं तथा ईशान, नैऋत्य, वायव्य एवं श्राग्नेय इन चारों * विशेष सविस्तर वर्णन जानने के लिये श्रावक प्रतिक्रमण विधि देखो ।