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दशवैकालिक सूत्र
ये समस्त प्रकार के जीव सुख ही चाहते हैं इसलिये साधु इन छहों जीवनिकायों में से किसी पर भी स्वयं दंड प्रारंभ न करे ( स्वयं इनकी विराधना न करे ); दूसरों से इनकी विराधना न करावे और जो कोई ग्रादमी इनकी विराधना करता हो तो उसका वचनों द्वारा अनुमोदन तक भी न करे ।
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ऊपर की प्रतिज्ञा का उल्लेख जब गुरुदेव ने किया तव शिष्यने कहा:- हे भगवन् ! मैं भी अपने जीवन पर्यंत मन वचन और काय इन तीन योगों से हिंसा नहीं करूंगा, दूसरों द्वारा नहीं कराऊंगा और यदि कोई करता होगा तो मैं उसकी अनुमोदना भी नहीं करूंगा ।
और हे भदंत । पूर्व काल में किये हुए इस पाप से मैं निवृत्त होता हूं। अपनी आत्माकी साक्षी पूर्वक मैं उस पापकी निंदा करता हूं। आप के समक्ष मैं उस पापकी श्रवगणना करता हूं और श्रवसे मैं ऐसे पापकारी कर्मसे अपनी आत्माको सर्वथा निवृत्त करता हूं ।
महाव्रतों का स्वरूप
शिप्यने पूंछा:- हे गुरुदेव ! प्रथम महाव्रत में क्या करना होता है ?
गुरुने कहा :- हे भट्ट ! पहिले महाव्रत से जीव हिंसा (प्राणातिपात) से सर्वथा विरक्त होना पडता है ।
शिष्यः - हे भगवन् ! मैं सर्व प्रकार के प्राणातिपात का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ ।
गुरुदेवः - जीव चार प्रकार के होते हैं: (१) सूक्ष्म ( श्रत्यंत बारीक जो दिखाई न दें, निगोदिया आदि); शरीरवाले जीव अर्थात् जो दिखाई देते हों);
(२) वादर (स्थूल (३) श्रस ( चलते