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सुवायशुद्धि [1] और भूतकाल, भविष्यकाल और वर्तमानकाल के किसी काम के
विषयमें यदि किंचित् भी शंका हो (अर्थात् जिस कार्य का निश्चय न हो) उसके संबंधौ ‘ यह ऐसा ही है। इस प्रकार
का निश्चयात्मक वाक्यप्रयोग न करे। [२०] परन्तु भूत, भविष्य तथा वर्तमानकाल में जो वस्तु (कार्य) . संशयरहित और दोपरहित हो उसी के विषयमें 'यह ऐसा ही
है' इत्यादि प्रकार का निश्चयात्मक वाक्य कहे । (अर्थात् परिमित
भापा द्वारा उस सत्य बात को प्रकट करे) [११] जिन शब्दों से दूसरे जीवों को दुःख हो ऐसे हिंसक एवं
कठोर शब्दों को, भले ही वे सत्य ही क्यों न हों फिर भी साधक अपने मुंह से न कहे क्योंकि ऐसी वाणी से पापाव
होता है। [१२] काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और
चोर को चोर श्रादि वाक्य प्रयोग, यदि सत्य भी हों तो भी, चाक्संयमी साधु न बोले ।
टिप्पणी-क्योंकि ऐसी सच्ची बात कहने से सुननेवाले को दुःख होता है और दूसरों को दुःख देना भी एक प्रकार की हिंसा हो तो है। इसलिये जब तक निदोप सत्य भाषा बोली जा सके तहां तक ऐसी दूषित भाषा का उपयोग करना ठीक नहीं है। [१३] आचार एवं भाव को गुण दोपों को समझनेवाला विवेकी साधु
इस प्रकार के अथवा अन्य किसी दूसरे प्रकार के सुनने वाले
को कष्टप्रद अथवा उसको चुभनेवाले शप्रयोग न करे । [१४] बुद्धिमान भितु; रे मूर्ख, रे लंपट (वेश्या) रे कुतिया, रे
दुराचारी, रे कंगाल ! रे अभागी! श्रादि २ संवोधन किसी स्त्री के प्रति न कहे।