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दशवैकालिक सूत्र पाप का आधार प्रवृत्ति पर भी है। जैसी प्रवृत्ति होगी वैता ही उसका फल होगा। जैसे विष पिनेवाले को नृत्यु स्वयं हो जाती है, अर्थात् नृत्यु को वुलाना नहीं पडता उसी तरह पापकर्म का दुष्परिणाम स्वयमेव होता रहता है। . अंतर केवल इतना ही है कि यदि वह पाप आसक्तिपूर्वक न हुआ हो तो उसफा पश्चात्तापादि द्वारा निवारण हो सकता है और यदि वह आसक्तिपूर्वक किया गया होगा तो उसके भयंकर परिणाम को भोगे विना छुटकारा हो ही नहीं सकता। [६४७] (निश्चयात्मक भाषा भी नहीं बोलनी चाहिये इसका विधान
कहते हैं) "मैं जरूर जाता हूं अथवा जाऊंगा, हम कहेंगे ही, हमारा यह काम होकर ही रहेगा अथवा ऐसा अवश्य होगा ही, मैं अमुक काम कर ही डालूंगा अथवा अमुक श्रादमी उसे अवश्य कर ही डालेगा" श्रादि निश्चयात्मक वाक्य भिक्षु न बोले क्योंकि वर्तमान एवं भविष्य के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
टिप्पणी-अनिश्चयात्मक वस्तु को निश्चयात्मक कहने से अनेक दोषों के होने की संभावना है। साधु की जिम्मेदारी जन सामान्य की अपेक्षा बहुत अधिक होने से उसके वचनों पर विश्वास रखकर कोई कुछ कार्य कर न बैठे जित से पीछे पछताने का अवसर आवे इसीलिये साधु पुरुष को कभी भी निश्चयात्मक वाणी नहीं कहनी चाहिये। अनेक वस्तुएं निश्चित होने पर भी यदि मुनि को उसको निश्चितता की खर न हो तो वह उसको भी निश्चित रूपसे न बोले । सारांश यह है कि साधु बहुत उपयोगपूर्वक अपने पर की जवावदारी का ध्यान रखते हुए भाषा का प्रयोग करे। [=] भितु भूतकाल, भविष्यकाल अथवा वर्तमानकाल संबंधी जिस
किसी बात को न जानता हो उसके विषयमें ' ऐसा ही होगा अथवा ऐसा ही है" आदि प्रकार के निश्चयात्मक वाक्यप्रयोग न करे।