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सुवास्यशुद्धि
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टिप्पणी-कठोर भाषाका परिणाम बहुत ही वैर तथा मनोमालिन्य वढानेवाला होता है। वाणी भाव को व्यक्त करने का अनुपम साधन हैं . इसलिये आचरण शुद्धि के लिये जितनी भावशुद्धि की आवश्यकता है उतनी
ही वचनशुद्धि की भी आवश्यकता है। साधक को भी संसार में ही प्रवृत्ति करनी होती है और जीभद्वारा अपने मनोगत भाव व्यक्त करने के लिये भाषा का व्यवहार करना पड़ता है। ऐसी भाषा उपयोगिता तथा सर्वव्यापकता की दृष्टिसे भीजी हुई होनी चाहिये, इतना ही नहीं किन्तु साधु के मुख से झरती हुई वाणी मोठी एवं कर्तव्यसूचक भी होनी चाहिये। [1] (मिश्रभापा के दोप बताते हैं) बुद्धिमान सिन्तु मात्र हिंसक
तथा परपीडाकारी भाषा न बोले, इतना ही नहीं किन्तु. सत्यामृपा (मिश्र) भापा भी न बोले क्योंकि ऐसी भापा भी शाश्वत अर्थ (अर्थात् शुद्ध प्राशय) में बाधा डालती है।
टिप्पणी-थोडा सत्य और थोडा असत्य मिलो हुई भाषा को 'मिश्र' भाषा कहते हैं। ऐसी मिश्र भाषा बोलना भी उचित नहीं है क्योंकि मिश्र भाषा में सत्य का कुछ अंश होने से भोली जनता अधिक प्रमाण में धोखा खा जाती है। इसके सिवाय वह अपनी आत्मा को भी धोखा देती है। इसलिये सत्यार्थी साधक के लिये ऐसी भाषा ऐहिक एवं 'पारलौकिक दोनों हितों में बाधक है। [श अज्ञात भाव से भी जो साधक असत्य होने पर भी सत्य जैसी
लगनेवाली भाषा बोलता है वह पापकर्म का बन्ध करता है। तो फिर जो जानबूझ कर असत्य बोलता है उसके पाप का तो पूंछना ही क्या है ?
टिप्पणी-जैसे किसी पुरुष ने स्त्रीका रूप धारण किया हो तो यदि कोई उसे स्त्री कहे तो तात्त्विक दृष्टिसे तो यह झूठ ही है तो फिर जो. कोई सरासर झूठ बोले उसके पाप का क्या ठिकाना है?