________________
दशवैकालिक
त्यागमें ही विश्वशांति का मूल है और वासनात्रों का पोपण ही विश्व की अशांति कारण है ।
१४
आदर्श त्याग के लिये तो त्याग ही जीवन है । उस सुन्दर जीवन में साम्प्रदायिकता का विष न मिलने पावे, अथवा जीवन कलुपित न होने पावे उसके लिये साधक दशामें त्यागी को खूब ही सावधान रहना पड़ता है । इस कारण उस सावधानता एवं व्यवस्थाको बनाये रखने के लिये ही आध्यात्मिक ददा के महान चिकित्सक महर्षि देवों ने गहरे मनोमंथन के बाद साधुता के संरक्षण के लिये सूक्ष्म से लेकर बड़े से बड़े आकार के ५२ अनाचीर्ण (निषेधात्मक ) नियम बताये हैं जिनका वर्णन इस अध्याय में बडी सुन्दर रीति से किया गया है।
गुरुदेव बोले :
[१] जिनकी आत्मा संयम में सुस्थिर हो चुकी है, जो सांसारिक वासनाओं अथवा आन्तरिक एवं बाह्य परिग्रहों से मुक्त हैं, जो अपनी तथा दूसरों की आत्माओं को कुमार्ग से बचा सकते हैं, अथवा जो छकाय ( यावन्मात्र प्राणियों ) के रक्षक हैं, और जो आंतरिक ग्रंथी ( गांठों ) से रहित हैं उन महर्पियों के लिये जो श्रनाचीर्ण ( न श्राचरने योग्य ) हैं वे इस प्रकार है :
:
टिप्पणी- स्त्री, धन, परिवार, इत्यादि बाह्य परिग्रह हैं और क्रोधादि आत्मदोष आंतरिक परिग्रह है । गाथामें आये हुए त्रायी शब्दका अर्थ
"
रक्षक 'है 1
छकायमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा त्रस · ( चलते फिरते प्रांणी ) इस प्रकार समस्त जीवों का समास हो जाता है ।