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सुलकाचार
[२] ५२ प्रकार के अनाचीणों के नाम यथाक्रम इस प्रकार हैं:
(१) प्रौदेशिक (अपने को उद्देश करके अर्थात् खास निज के लिये बनाये हुए भोजन को यदि साँधु ग्रहण करे तो उसको यह दोष लगता है), (२) क्रीतकृत (साधुके निमित्त ही खरीद कर लाये हुए भोजन को ग्रहण करना), (३) नित्यक (हमेशा एक ही घर से, जो आमंत्रण दे जाता हो वहां
आहार लेना), (४) अमिहत (अमुक दूरीसे साधु के लिये उपाश्रयादि स्थानमें लाए गये आहार को लेना), (२) रात्रीभुक्ति (रातमें भोजन करना), (६) स्नान करना, (७) चंदन
आदि सुगंधी पदार्थों का उपयोग करना, (८) पुष्पों का उपयोग करना, (6) पंखा से हवा करना;
टिप्पणी-भोजन का निमंत्रण लेनेमें अपना निमित्त होजाने की पूरी संभावना है इसीलिये शास्त्रीय दृष्टि से उस आहार का साधुके लिये वयं कहा है। [३] (१०) संनिधि (अपने अथवा दूसरे किसी के लिये घी, गुड़,
अथवा अन्य कोई प्रकार का आहार रात्रिमें संग्रह कर रखना), (११) गृहिपात्र (गृहस्थ के पात्रों-बर्तनों में श्राहारादि करना), (१२) राजपिंड (धनिक लोग अपने लिये बलिष्ठ औषधि आदि डालकर पुष्टिकारक भोजन बनाते हैं ऐसा जानकर उस भोजन को ग्रहण करने की इच्छा करना), (१३) किमिच्छक (आपको कौनसा भोजन रुचिकर है, अथवा श्राप क्या खाना चाहते हैं, ऐसा पूंछकर बनाया गया भोजन अथवा दानशाला का भोजन ग्रहण करना), (१४) संवाहन (अस्थि, मांस, त्वचा, रोम इत्यादि को सुख देनेवाले तैल आदि का मर्दन कराना), (११) दंत प्रधावन (दांतौन करना), (१६) संप्रश्न (गृहस्थों के शरीर अथवा उनके गृहसंबंधी कुशलक्षेम समाचार पूंछना और उस वार्तालाप