________________
दशवैकालिक
में अत्यधिक रस लेना), (१७) देहलो कन (दर्पण अथवा अन्य ऐसे ही साधन द्वारा अपने शरीर की शोभा देखना)
टिप्पणी-दलिष्ठ (पुष्टिकारक) आहार करने से शरीर में विकारों के जागृत हो जाने की संभावना रहती है और विकारों के दढने से संयम में रुति होने का डर रहता है, इसीलिये पुष्टिकर भोजन ग्रहण करने का खास निषेध किया गया है। दानशाला का आहार लेने से दूसरे याचकों को दुःख होने की संभावना है इसीलिये उसे वर्ण्य है। [१] (1) अष्टापद (जुत्रा खेलना), (१६) नालिका (शतरंज आदि
खेल खेलना), (२०) छत्र धारण करना, (२१) चिकित्सा (हिंसा निमित्तक औषधोपचार कराना), (२२) पैरों में जूते पहिरना, (२३) अग्नि जलाना।
टिप्पणी-'नालिका' यह प्राचीन समय का एक प्रकार का खेल है किंतु यहां इत शब्दसे चौपट, गंजीफा (तारा), शतरंज आदि सभी खेलों से अराय है। ये सभी प्रकर के खेल साधु के लिये वर्ण हैं क्योंकि उनसे अनेक शेर लगने की संभावना है। [7 (२४) शव्यातरपिंड (जिस गृहस्थने रहने के लिये आश्रय दिया
हो उसी के यहां भोजन लेना), (२१) श्रासदी (संडा एवं पलंग आदि का उपयोग), (२६) गृहान्तर निपया (दो घरों के बीचमें अथवा गृहस्थ के घर बैठना, (२७) शरीर का उद्वर्तन करना (उवटन आदि लगाना)
टिप्पणी-जिस गृहस्थकी आशासे साधु उसके मकान में ठहरा हो उसके घर के अन्न जल को वयं इसलिये कहा है कि वह गृहस्य साधु को अन्वागत समझकर उसके निमित्त भोजन वनवायेगा और इस कारण से वह भोजन औदेशिक होने से दूपित हो जायगा।
आसंदी-यह हिंडोला या झूला अथवा सांगामांची जैसा गृहस्य का होता है। ऐसे स्थानों पर बैठने से प्रमादादि दोषों की संभावना है।