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कुल्लकाचार
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दो घरों के बीचमें बैठने से उन घरों के आदमी, संभव है, उसे चोर मानलें।
रोगी, अशक्त, अथवा तपस्वी साधु यदि अपने शरीर की प्रशक्ति के कारण किसी गृहस्थ के यहां बैठे तो उसे इस वातकी छूट है। उक्त कारण के सिवाय अन्य किसी भी कारण से मुनि गृहस्थ के यहां न बैठे। इसका कारण यह है कि गृहस्थ के यहां बैठने उठने से परिचय बढने की और उस बढे हुए परिचय के कारण संयमी जीवनमें विक्षेप होने की पूरी २ संभावना है। [६] (२८) वैयावत्य (गृहस्थ की सेवा करना अथवा उससे
अपनी सेवा कराना), (२६) जातीय आजीविक वृत्ति (अपना कुल अथवा जाति बताकर मिक्षा लेना), (३०) तप्तानिवृतभोजित्व (सचित्त जल का ग्रहण), (३१) आतुरस्सरण (रोग किंवा सुधा की पीडा होने पर अपने प्रिय स्वजन का नाम ले २ कर सरण करना अथवा किसी की शरण मांगना)
टिप्पणी-यहां 'सेवा' शब्दका आशय अपना शरीर दबवाना, मालिश कराना आदि क्रियाओं के कराने का है। निष्कारण ऐसी सेवाएं कराने से आलस्यादि दोषों के होने की संभावना है। वर्तन के ऊपर, मध्य और नीचेइन तीनों भागों में जो पानी खूब तपा हो उसे 'अचित्त' पानी कहते हैं। [0] (३२) सचित्त मूली, (३३) सचित्त अदरख, और . (३४) सचित्त
गन्ना, ग्रहण करना। इसी प्रकार (३५) सचित्त सूरण आदि कंदो को, (३६) सचित्त जडीबूटिओं को, (३५) सचित्त फलों को, और (३८) सचित्त बीजों को ग्रहण करना।
* कई एक वस्तुएं ऐसी हैं जिनका सामान्यरूपसे सचित्त संबंधी निणय नहीं किया जा सकता । इस संबंध में सचित्त अवित्त निर्णायक फमिटी • का नियंध मारकरस रिपोर्ट में छपा है, उसे देख ले।