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धर्मार्थकामाध्ययन
प्रकारान्तर से इस बात का उपदेश दिया है कि मुमुक्षु एवं जिज्ञासु श्रोता को मन को निश्चल बनाये विना धर्म एवं तत्त्व की प्राप्ति नहीं होती।
इस गाथामें आचार शब्द का वास्तविक आशय धर्म अथवा धर्मपालन के मूल नियमों से है और गोचर' शब्द का आशय संयमपालन के उन इतर नियमों से है जिन के द्वारा मूलव्रतों की पुष्टि होती है। [३] इन्द्रियोंका दमन करनेवाले, यावन्मात्र प्राणियों के सुख के
इच्छुक, और निश्चल मन रखनेवाले ये विचक्षण महात्मा शिक्षा से युक्त होकर इस प्रकार उत्तर देने लगे:
टिप्पणी-शिक्षा के दो प्रकार है (१) आसेवना शिक्षा; और (२) ग्रहण शिक्षा । प्रथम शिक्षामें शानाभ्यास का समावेश होता है और दूसरीमें तदनुसार आचरण करने का समावेश होता है। [४] (गुरुदेव बोलेः) हे श्रोताओ ! धर्म के प्रयोजन रूपी मोक्ष के
इच्छुक निग्रंथों का अति कठिन और सामान्य जनों के लिये असाध्य माने जाने वाले संपूर्ण प्राचार तथा गोचर का मैं
संक्षेप से वर्णन करता हूं उसे तुम ध्यान पूर्वक सुनो। [२] इस लोक में जिसका पालन करना अत्यन्त कठिन है उस दुष्कर
व्रत एवं प्राचार का विधान एकान्त मोक्ष के भाजन स्वरूप एवं संयम के स्थानस्वरूप वीतराग धर्म के सिवाय अन्यत्र कहीं पर भी (किसी भी धर्म में), नहीं किया गया और न किया ही जायगा ।
टिप्पणी-जैनधर्म में श्रमण तथा गृहस्थवर्ग दोनों के लिये कठिन नियम रक्खे गये हैं उन नियमों का जितने अंशमें पालन होता जाता है उतने ही अंशमें त्याग एवं तप की स्वाभाविक आराधना होती जाती है और उसीको आत्मविकास कहते है।