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दशवैज्ञालिक सूत्र
इस बात पर भी बटा हो जोर दिया है कि गुरु भी आदर्श गुरु होना चाहिये निःस्वार्थता, शुद्ध चारित्र और परमार्थबुद्धि ये गुरुके विशिष्ट गुण हैं। [२७] (गुरुकी अधिक विनय कैसे की जाय) साधक. मि अपनी
शव्या, आसन, एवं स्थान गुरुको अपेक्षा नीचा रक्खे। चलते समय भी वह गुरुले भागे आगे न चले और नीचे मुखकर गुरुदेवके पदकमलों को वंदन करे तथा हाथ जोडकर नमस्कार
करे। [८] यदि कदाचित् अपना शरीर अथवा वस्त्र आदि गुरुजीके शरीरसे
छू जाय तो उसी समय साधु 'मुझसे यह अपराध हुआ, कृपया तमा कीजिये, अब ऐसी भूल न होगी, इस प्रकार बोले और
वादमें ऐसा ही प्राचरण करे। [१] जिस तरह गरियार बैल चाबुक पड़ने पर ही रथको खींचता
है उसी तरह जो दुष्टबुद्धि अविनीत शिष्य होता है वह गुरुके
वारंवार कहने पर ही उनकी श्राज्ञाका पालन करता है। [२०x२] किंतु धीर साधुको तो, गुरु चाहे एक वार कहें या अनेक
वार, परन्तु उसी समय अपनी शय्या या श्रासन पर बैठे २ • प्रत्युत्तर न देना चाहिये और उसी समय खडे होकर अत्यन्त
नम्रताके साथ उसका उत्तर देना चाहिये और वह बुद्धिमान शिष्य अपनी तकरणाशक्तिसे अन्य, क्षेत्र, काल तथा भावसे. गुरुश्रीके अभिप्राय तथा सेवाके उपचारोंको जान कर उन २ उपायों को तत्क्षण ही समयानुसार करने में लग जाय ।
टिप्पणी-इस गाथामें विवेक तथा व्यवस्था करने का विधान करके प्रकारान्तरले विनयमें अंधश्रद्धा एवं अविवेक को विलकुल स्थान नहीं है इस वातका निर्देश किया है।