________________
दशवैकालिक सूत्र
६०
[ ४२+४३] गोद के बालक या वालिका को दूध पिलाती हुई यदि कोई स्त्री उस बच्चे को रोता छोड कर भिक्षु को व्होराने के लिये आहार पानी लावे तो वह चाहार पानी संयमी पुरुषों के लिये कल्प्य (अग्राहा ) है इस लिये दान देती हुई उस बाई को श्रमण कहे कि इस प्रकार की भिक्षा मेरे लिये ग्रहण करने योग्य नहीं है ।
+
[ ४४ ] जिस श्राहार पानी में कल्प्य अथवा अकल्य की शंका होती हो उस आहार पानी को देनेवाली स्त्री को श्रमण कहे कि इस प्रकार की भिक्षा मेरे लिये ग्रहण करने योग्य नहीं है ।
टिप्पणी- कई बार ऐसा होता है कि स्वंय दाता को हो अमुक भोजन या पेय प्रातुक ( निर्जीव ) है या नहीं इसकी शंका रहती है । संयमी साधु ऐसी शंका पूर्ण भिक्षा ग्रहण न करे ।
[ ४५+ ४६ ] जो श्राहार पानी सचित्त पानी के घडे से ढंका हो, पत्थर के खरल से, बाजोठ (बाजर) से, ढेले से या मिट्टी अथवा ऐसे ही किसी दूसरे लेप से ढंका हो अथवा उस पर लाख की सील लगी हो और उसे श्रन्नपान को श्रमण को दान देने के लिये लावे तो उस श्रमण कहे कि इस प्रकार की भिक्षा मेरे लिये ग्राह्य
तोडकर उसके
बाई को
नहीं है ।
टिप्पणी-टूटी हुई सील को पुनः लगानी पडे तो इससे गृहस्थ को कष्ट तथा तत्संबंधी आरंभ में जीवहिंसा होने की आशंका है इस लिये उसे त्याज्य कहा है ।
खाद्य और स्वाद्य
[ ४७+४= ] गृहस्थों द्वारा बनाये हुए अन्न, पेय, इन चार प्रकार के भोजनों के विषय में, यदि श्रमण स्वतः अथवा दूसरों से सुने कि यह भोजन तो दूसरों को दान देने के निमित्त बनाया गया है तो वह आहार पानी संयमी साधु