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दशवकालिक सूत्र.
उनको बचाकर चलता है और अचित्त भिता को ही ग्रहण
करता है ऐसा साधु ही श्रादर्श साधु है। [] जो अपने निमित्त बनाई हुई भिक्षा को नहीं लेता, जो स्वयं
भोजन नहीं बनाता और न दूसरों से बनवाता ही है वही आदर्श मिनु है क्योंकि भोजन पकाने से पृथ्वी, घास, काष्ठ, और उसके आश्रयमें रहनेवाले इतर प्राणियों की हिंसा होती है इसलिये भिन्नु ऐसी हिंसाजनक प्रवृत्ति नहीं करता है।
टिप्पणी-यहां किसी को यह शंका हो सकती है कि साधु जीवनमें भोजन की जरूरत तो होती ही है तो यदि मुनि न पकायेगा तो कोई दूसरा अवश्य ही उसके लिये पकायेगा और उस दशामें उस आदमी का उपयोगी समय बर्बाद होगा इतना नहीं उसे व्यर्थ ही कष्ट तथा मुनिके भोजन का खर्च सहना पडेगा और साधु महाराज के निमित्त से वह उतने अधिक आरंभ का पापभागी भी होगा। अपने स्वार्थ के लिये किसी दूसरे को इतनों उपाधिमें डालना इसमें विश्वोपकारक भगवान महावीर की अहिंसा का पालन कहां हुआ ?
इसका समाधान यह है कि साधु जीवन निःस्वार्थी, निःस्पृही तथा स्वतंत्र जीवन होता है। निःस्वार्थता, निःस्पृहता और स्वतंत्रता ये सब इन्। उत्तम गुण है कि वे स्वयं अपने पैरोंपर खडे हो सकते हैं इतनाही नहीं किन्तु वे दूसरों का बोझ भी वहन कर सकते हैं। जो वस्तु हलकी होती है वह स्वयं पानी के ऊपर रहती है, यही नहीं उसपर बैठनेवाले कोभी पानी में डूबने नहीं देती। ठीक इसी तरह जहां साधु जीवन होता है वहां शांति रहती है । जगत के यावन्मात्र प्राणी शान्ति के इच्छुक होने के. कारण स्वयं उसको तरफ आकृष्ट होते हैं । त्याग के प्रति इस आकर्षण को ही दूसरे शब्दों में भक्ति तत्त्व' कहते हैं । यह भक्तितत्त्व मानव हृदयम रही हुई अर्पणता को बाहर खींच लाता है।