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दशवकालिक सूत्र
. टिप्पणी-लाभ मा हानिमें, निंदा था स्तुति, समता, संतोष, जितेन्द्रियता इत्यादि साधुगुणोंका स्वीकार तथा दोनवृत्ति, निंदा तथा तिरस्कार जैसे दुर्गुणोंका साग ये सब बातें पूज्यता पैदा, करनेवाली है।
अनय पूज्यताको कभी नहीं चाहता फिर भी गुणको सुवास पूज्यताको स्वयं खींचती है। ऐसा साधक श्रमण शीघ्र ही अपने साध्यको सिद्ध करके निवासक अपरिमित अनंदको भोगता है।
ऐसा मैं कहता हूं:-. इस प्रकार 'विनय समाधि' नामक अध्ययनका तीसरा उद्देशक समाप्त हुआ।
चौथा उद्देशक
अध्यात्म शांतिके अनुभवको समाधि कहते हैं । अध्यात्म शांतिके पिपासु साधक जिस समाधिक्री सिद्धि चाहते हैं उसके ४ साधनों का वर्णन इस उद्देशकमें किया है। उन साधनोंका जो साधक सावधानीसे उपयोग करता है और उसमें लगनेवाले दोषोंको भलीभांति जानकर उन्हें दूर करनेकी कोशिश करता है वे ही साधक अध्यात्म शांतिके मामें आगे बढ़ते हैं और जो कोई इनका दुरुपयोग करता है वह स्वयं गिर पड़ता है और साथ ही साथ प्राप्त साधनोंको भी गुमा बैठता है।
गुरुदेव बोले:-
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— सुधर्मस्वामीने अपने शिष्य जंबूस्वामी को उद्देश करके इस प्रकार कहा था हे श्रायुप्मन् ! भगवान महावीरने इस प्रकार कहा था