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दशर्वकालिक सूत्र हैं। शरीर सौंदर्य तथा उसकी टापटीप उसमें और भी उत्तेजना पैदा कर देती है। यदि इसमें कहीं खीका संसर्ग और वह भी कहीं एकांत . में मिल जाय तो फिर क्या कहना है ? इस प्रवाहमें महासमर्थ मनस्वी भी वह जाते हैं। जिन तरह विषपान करके भी अमर बने रहने के दृांत कचित् ही दिखाई देते हैं उसी तरह इन तीनों विषय परिस्थतियों को निरन्तर सेवन करनेवाला पतित न हो यह आकाशकुसुम जैसी कठिन वात है। [१८] स्त्रियोके अंगप्रत्यंग, आकार, मीठे शब्द (भालाप) तथा सौम्य
निरीक्षण (कटात) ये सब कामराग (मनोविकार) को बढाने के ही निमित्त हैं, इसलिये सुज्ञ साधक उनका चिन्तन न करे। टिप्पणी-विषयभावना अथवा विकार दृष्टिसे स्त्रियों के अंगोपांग देखना
यह भी महा भयंकर दोष । [१६] यावन्मात्र पुद्गलोंके परिणामको अनित्यस्वभावी जानकर सुज्ञ
साधक मनोज्ञ विपयों (भिन्न २ प्रकारकी मनोक्ष वस्तुओं) में
श्रासक्ति न रखे तथा अमनोज्ञ पदार्थों पर द्वेप न करे। [६०] सुज्ञ मुनि पौद्गलिक (जड़) पदार्थों के परिणमनको यथार्थरूप
से जानकर तृप्णा (लालच) से रहित होकर तथा अपनी आत्मा को शांत रखकर संयमधर्ममें विचरे।
टिप्पणी-पदार्थमात्रका परिवर्तन होना स्वभाव है। जो वस्तु आज सुंदर 'दिखाई देती है वही कल असुन्दर और असुन्दर सुन्दर दिखाई देने लगती है। पदार्थमात्र के इन दोनों पक्षोंको देखकर उसके तिरस्कार या प्रलोभनमें न 'पडकर साधुको समभावपूर्वक ही रहना चाहिये। [६] पूर्ण श्रद्धा तथा वैराग्यभावसे अपने घरको छोडकर उत्तम त्याग
को प्राप्त करनेवाला मिनु उसी श्रद्धा तथा दृढ वैराग्यसे महापुरुषों द्वारा बताये गये उत्तम गुणोंमें रक्त रहकर संयमधर्मका पालन करे।