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पिंडैषणा
को कहे कि इस प्रकार की भिक्षा लेना मुझे कल्प्य (मेरे लिये ग्रास) नहीं है।
टिप्पणी-भोजन फैलने से जमीन पर गंद की होगी और उस पर क्षुद्र जीव आ बैठे तो इस प्रकार उन पर होकर आने जाने में उनकी हिंसा हो जाने की आशंका है।
गाथामें 'गृहस्थ खी' शब्द आया है तो इससे कोई यह न समझे कि स्त्री ही दान दे। ऐसा कोई खास नियम नहीं है किन्तु गृहकार्य और उसमें भी रसोई गृह का सारा प्रबंध तो स्त्रियों के हाथों में ही होता है इस लिये सम्मान्यता को इष्टि से इस पद का यहां उपयोग किया है। [२६] अथवा भिता देनेवाली याई रास्ते में चलते फिरते शुद्र
जन्तुओं, लीलोतरी आदि को खुदती हुई भिसा लावे तो वह दाता असंयम कर रहा है ऐसा समझकर वह साधु उस मिता को ग्रहण न करे।
टिप्पणी-संयमी स्वयं सक्ष्म जीवों की हिंसा न करे मन से भी न विचारे यह तो उसका जीवनव्रत है ही किन्तु ऐसा शुद्ध अहिंसक अपने निमित्त दूसरों द्वारा हिंसा होने की भी इच्छा न करे। [३०+३१] इसी प्रकार साधु के भोजन में सचित्त में अचित्त वस्तु
मिलाकर अथवा सचित्त वस्तु पर अचित्त वस्तु रखकर अथवा सचित्त वस्तु का स्पर्श करा कर अथवा सचित्त अल को हिलाकर अथवा यदि घरमें वर्षादि का पानी भरा हुआ हो तो उसमें प्रवेश कर के, उसको बुब्ध कर के, सचित्त वस्तु को एक तरफ हटाकर, यादि दाता वाई श्रमण के लिये आहार पानी लावे तो मुनि उस दाता बहिन को कह दे कि ऐसा भोजनपान उसके लिये प्रकल्प्य (अग्राख्य) है। . . . .