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करने का गंभीर एवं समीचीन उद्देश्य उसी में छिपा हुआ है । साधक विचरेगा नहीं तो आत्मधर्म का उपदेश कौन देगा ? भूली हुई आत्माओं को सुमार्ग पर कौन लगायेगा ?
( ३ ) वरस द पड़ते समय आहार पानी के लिये बाहर जाने का निषेध किया गया है किन्तु वहां भी मलविसर्जन आदि कारणों के लिये छूट दी हैं क्योंकि ये क्रियाएं अनिवार्य हैं; दूसरे, उनको रोकने से संयम में ही बाधा उत्पन्न होने का डर है ।
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(४) गृहस्थ के घर में साधु को न उतरने की जैन शास्त्रों की कही आज्ञा है किन्तु दूसरी तरफ एकाद दिनके लिये अनिवार्य प्रसंग माने पर रहने की छूट भी दी हैं और उस समय में साधु को किस प्रकार अपने धर्मकी समाल करनी चाहिये उसका वर्णन भी किया है ! ध्यान में रखने की बात यह है कि उक्त विचार अपवाद मार्ग है, कि विधेय मार्ग । विधेय मार्ग तो एक ही है और वह यह है कि साधु को' कनक एवं कामिनी के संग से सर्वथा मुक्त रहना चाहिये । इसमें श्रमसाधक के लिये लेशमात्र भी अपवाद अथवा छूट नहीं दी गई, क्योंकि अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह ये दोनों बातें संयम की बाधक एवं आत्मा की प्रत्यक्ष रू. से घातक हैं । इसी प्रकार संयमी - जीवन को बाधक अन्य समस्त क्रियाओं एवं पदार्थों का सख्त निषेध किया गयां है । सारांश यह है कि त्यागी साधक को विवेकपूर्वक संयमी जीवन को वहन करना चाहिये । संयमी जीवन में विवेकपूर्वक आचरण करा यही उसका एकमात्र कर्तव्य है ।
इस प्रकार दशवेकालिक में उल्लिखित नियमों का विवेकपूर्ण निराकरण करने के लिये मैंने यहाँ वाचकों को अति संक्षेप में अनेकान्तवाद सिद्धान्तको झांखी कराई है ।
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