________________
पिंडेपणा
६७
क्षुधा से पीडित होने से ) यदि भोजन करने की इच्छा हो तो वह शून्यगृह अथवा किसी भींत ( दीवाल) के मूल के पास जीवरहित स्थान को ढूंढे और ऊपर से ढंके हुए थवा छत्रवाले उस स्थान में मेधावी साधु उस के मालिक की प्रज्ञा प्राप्त कर अपने हाथों को साफ करने के बाद वहां हार करे ।
[=४+८+८६] उपरोक्त विधि से प्रहार करते हुए भोजन में यदि कदाचित गुठली, कंकडी, कांटा, घास का तृण अथवा काठ का टुकडा अथवा इसी तरह का और कोई दूसरा कूडा कर्कट निकले तो मुनि उसको ( वहां बैठे २ ही) हाथ से जहां तहां दूर न फेंके और न मुंह से फूंक द्वारा उछाल कर ही फेंके किन्तु उसको हाथ में रखकर एकांत में जाय और वहां निर्जीव स्थान देखकर यत्नापूर्वक उस वस्तु का त्याग करे और वहां से ईर्यापथिक क्रियासहित लौटे।
टिप्पणी- 'ईर्या' अर्थात् मार्ग । मार्गम जाते हुए जो कुछ भी दोष हुआ हो उसको निवारण करने की क्रिया को 'ईर्यापथिकी क्रिया' कहते हैं ।
[८] और यदि अपने स्थान पर पहुंचने के बाद भिक्षा ग्रहण करने की इच्छा हो तो भोजनसहित वहां आकर सब से पहिले वह स्थान निर्जीव है कि नहीं इसको ध्यानपूर्वक देखे और बाद में उसे (अपने रजोहरण से ) साफ करे ।
टिप्पणी- प्रत्येक जैन भिक्षु के पास रजोहरणं होता है । वह इतना कोमल होता है कि उससे झाडने से सूक्ष्म जीव की भी विराधना न होकर वह एक तरफ हो जाता है ।
[5] फिर बाहर से याया हुआ वह साधु उस स्थानमें प्रविष्टं होकर विनयपूर्वक गुरु के समीप श्रावे और (आहार को एक