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दशवकालिक सूत्र टिप्पणी-संयम, संतोष एवं इच्छानिरोध इन तीन गुणोंका जिस किसीमें विकास हो जाता है वही जैन है। ऐसा साधक जिनशासन की प्राप्त होकर विरुद्ध प्रसंग आने पर भी क्रोध न करे। क्योंकि क्रोध करने से जैनत्व दूषित होता है और आसुरी भाव पैदा होता है। आतुरी प्रकृतिको छिन्न कर दैवी प्रकृति को प्राप्त होना यह भी धर्मश्रवण के भनेक फलोंमें से एक फल है। [२६] समनती साधु सुन्दर, मनोहर, रागपूर्ण शब्दों को सुनकर उधर
रागाकृष्ट न हो अथवा भयंकर एवं कठोर शब्दों को सुनकर उनकी तरफ द्वेषभाव न वतावे किन्तु दोनों परिस्थितियों में समभाव धारण करे।
टिप्पणी-रागके स्थानमें राग और द्वेषके स्थान, द्वेष, दोनों विषयपरिस्थतियोंमें समभाव रखनेवाला हो श्रमण कहलाता है और ऐसी वृत्तिके उपासक को हो जैन साधक कहते हैं। [२५] मिनु साधक भूख, प्यास, ठंडी, गर्मी, कुशय्या, अरुचिकारक
प्रसंग, सिंह श्रादि पशु किंवा मनुष्य देवकृत भयप्रसंग श्रा जाय अथवा इस तरह के अन्य परिषह (आकस्मिक आये हुए संकट) श्रा पडें तो उन्हें समभावसे सह लें क्योंकि देहका दुःख यह तो आत्माके लिये महासुखका निमित्त है। टिप्पणी-इन्द्रियोंके संयममें ऊपरसे देखने से दुःख मालूम होता है और उनके असंयममें सुख मालूम होता है परन्तु वस्तुतः देखा जाय तो इनका परिणाम केवल दुःख का ही देनेवाला है। इन्द्रियों का ऐसा स्वभाव होने से संयम दुःखल्प मालूम पडता है किंतु उसका परिणाम एकांत सुखरूप ही है। संयमी पुरुष यदि गृहस्थाश्रममें भी हो तो संयमद्वारा संतोष एवं अहिंसा के गुणोंकी वृद्धि कर सुखी होता है। [२८] संयमी सूर्यास्त होने के बाद और सूर्योदय होने के पहिले
किसी भी प्रकारके आहार की मनसे भी इच्छा न करे।