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प्राचारप्रणिधि
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[२०] (गृहस्थके यहां भिक्षार्थ जाता हुआ) भिनु बहुत कुछ बुरा
भला सुनता है, आंखोंसे बहुत कुछ भलावुरा देखता है किन्तु देखी हुई किंवा सुनी हुई वातोंको दूसरोंसे कहना उसके लिये.
योग्य नहीं है। [२१] अच्छी-बुरी सुनी हुई किंवा देखी हुई घटना दूसरोंसे कहने पर
यदि किसीका चित्त सुमित हो अथवा किसीको दुःख हो तो' ऐसी बात भिक्षु कभी न बोले तथा किसी भी प्रकार से
गृहस्थोचित (मुनिके लिये अयोग्य) व्यवहार • कभी न करे। [२२] कोई पूंछे अथवा न पूंछे तो भी भिक्षु कभी भी भिक्षाके संबंध
में यह सरस है किंवा अमुक पदार्थ रसहीन है। यह गाम अच्छा है या बुरा है। अमुक दाताने दिया और अमुकने नहीं
दिया इत्यादि प्रकारके वचन कभी न बोले। [२३] मिनु भोजनमें कभी भी प्रासक न बने और गरीव तथा धन
वान दोनों प्रकार के दाताओं के यहां समभावपूर्वक भिक्षार्थ जाकर दातार के अवगुणों को न कहते हुए मौनभावसे जो कुछ भी मिल जाय उसीमें संतुष्ट रहे किन्तु अपने निमित्त खरीद कर लाई हुई, तैयार की हुई किंवा ली गई तथा
सचित्त भिक्षा कभी भी ग्रहण न करे। [२४] संयमी पुरुप थोडेसे भी श्राहार का संग्रह न करे और यावन्मात्र
जीवोंका रक्षक वह साधु निःस्वार्थ तथा अप्रतिवद्धता (अनासक्त
भाव) से संयमी जीवन व्यतीत करे। [२२] कठिन व्रतोंका पालक, अल्प इच्छावाला, संतोपी जीवन विताने
वाला साधक जिनेश्वरों के सौम्य तथा विश्ववल्लभ शासन को प्राप्त कर कभी आसुरत्व (क्रोध) न करे।